पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७४१

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७२० वायुपुराणम् भवन्ति च वृथा तस्य क्रिया होता न संशयः | वाग्भावशुद्धनिणिक्तमदुष्टं वाऽप्यनिन्दितम् मेध्यान्येतानि ज्ञेयानि दुष्टमेभ्यो विपर्ययः । न वक्तव्यः सदा विप्रः क्षुधितो नास्ति किंचन तस्मै सत्कृत्य यो दद्यादयूपो यज्ञ उच्यते । अप्लुप्टान्नं शृतान्नं तु कृशवृत्तिमयाचकम् एकान्तशीलं ह्रीमन्तं सदा श्राद्वेषु भोजयेत् । यो ददात्यन्तिमेभ्यश्च स ब्रहृघ्नो दुरात्मवान् अपि जातिशतं गत्वा न स मुच्येत किल्विषात् । विषमं भोजयेद्विप्रानेकपङ्क्त्यां च यो नरः नियुक्तो वाऽनियुक्तो वा पङ्क्त्या हरति दुष्कृतम् । पापेन गृह्यते क्षिप्रमिष्टापूर्त च नश्यति यतिस्तु सर्वविप्राणां सर्वेषामग्र्च उत्सवे | इतिहासपञ्चमान्चेदान्यः पठेत्तु द्विजोत्तमः अनन्तरं यथायोग्यं नियोक्तव्यो विजानता | त्रिवेदोऽनन्तररतस्य द्विवेदस्तदनन्तरः एकवेदस्तथा पश्चान्न्यायाध्यायी ततः परम् | पावना ये च पङ्क्त्या व तान्प्रवक्ष्ये निबोधत य एते पूर्वनिर्दिष्टाः सर्वे ते नुपूर्वशः । पडो दिनयो योगी सर्वतन्त्रस्तथैव चं ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ५५ सैकड़ों जन्म लेने नीच ब्राह्मणों को पर भी वह पाप बिठाकर भोजन सन्देह नही । वचन से शुद्ध, पुनीत अथवा सभी विधियों से सुसम्पन्न, दोषादि रहित एवं अनिन्दित जो क्रियाये होती हैं वे पवित्र मानी गयी हैं, जो इनके विपरीत हैं, वे अपवित्र तथा दोपपूर्ण है।४४-४६३ । क्षुधा से पीड़ित ब्राह्मण को कभी कुछ न कहना चाहिये, उसे सत्कार पूर्वक उस लवस्था मे जो कुछ दे दिया जाता है वह विना यज्ञ स्तम्भ के ही एक यज्ञ है, अर्थात् यह भी एक यज्ञ के समान फलदायी है। श्राद्धादि में सर्वदा कठिनता से जीविका उपार्जित करनेवाले, किन्तु अयाचक, एकान्त प्रेमी, लग्जावान् ब्राह्मण को खूब पके हुए अन्न का भोजन कराना चाहिये, वह अन्न सड़ा हुआ अथवा जला भुना हुआ न हो । जो व्यक्ति श्राद्धादि कार्यों में चाण्डाल नादि अन्त्यज जातियों को भोजन कराता है. वह ब्रह्महत्यारा एवं दुरात्मा से छुटकारा नहीं पाता । जो मनुष्य एक हो पाँत में कुछ उच्च एवं कुछ कराता है, वह चाहे उस कर्म के लिये नियुक्त हो अथवा न नियुक्त हो, पाप का भागी होता है, उसके बावली, कूप, तड़ाग, बगीचे नादि लगाने के पुण्य इस पक्ति पाप से शीघ्र हो नष्ट हो जाते है |४७-५१। सभी कामों में वीतराग संन्यासो ब्राह्मणो से श्रेष्ठ कहे गये है । जो श्रेष्ठ ब्राह्मण चारो वेद तथा पांचवे वेद रूप इतिहास ( महाभारत ) का पाठ करता है उसे संन्यासी के बाद पण्डितों को चाहिये कि श्राद्धादि में वथा योग्य स्थान पर नियुक्त करें । इसके उपरान्त तीन वेदों के अध्ययन करनेवाले ब्राह्मणों को नियुक्त करे। उसके बाद दो वेदो के अध्यामी को नियुक्त करे ।५२-५३। उसके बाद एक बेद के अभ्यासी को, राब के बाद न्याय (तर्क शास्त्र) के अध्ययन करनेवाले ब्राह्मण को श्राद्धादि में नियुक्त करना चाहिये । अव पंक्ति से पवित्र पंक्तिपावन जो ब्राह्मण कहे गये है, उनके बारे में बतला रहा हूँ, सुनिये |५४ | जो ये पूर्व प्रसंग मे कहे गये ब्राह्मण है, वे क्रमश: धाद्धादि के लिये जानने चाहिये । वेद के छहों अंगो ( शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिप) के अध्ययन करनेवाले, विनयी, घोग परायण, सभी शास्त्रों मे स्वतन्त्र विचार रखनेवाले, एवं सर्वदा गमन करनेवाले अर्थात् किसी एक निर्दिष्ट ·