पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७४०

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नवसप्ततितमोऽध्यायः

  • विच्छिन्नं स्याद्विपर्यास दैवे पित्र्ये तथैव च । दक्षिणेन तु हस्तेन दक्षिणां वेदिमालिखेत्

कराभ्यामेव देवानां पितॄणां विकरं ( ? ) शुभम् । क्षुभितस्वप्नयोश्चैव तथा सूत्रपुरीषयोः निष्ठीविते तथा व्यक्त भुक्त्वा विपरिधाय च | उच्छिष्टस्य च संस्पर्शे तथा पादावसेचने उत्सृष्टस्य सुसंभाषे ह्मशुचि (?) प्रयतस्य च । संदेहेषु च सर्वेषु शिखां मुक्त्वा तथैव च विना यज्ञोपवीतेन मोहात्तु यद्यपस्पृशेत् । ओष्ठस्य दन्तसंस्पर्शे दर्शने चान्त्यवासिनाम् जिह्वया चैव संस्पृश्य दन्तासक्तं तथैव च । सशब्दमङ्गुलीभिश्च प्रणतश्वावलोकयन् यश्चाधर्मे स्थितो मोहादाचान्तोऽप्यशुचिर्भवेत् । उपविश्य शुचौ देशे प्रणतः प्रागुदङ्मुखः पादौ प्रक्षाल्य हस्तौ तु अन्तर्जानुरुपस्पृशेत् । प्रसन्नास्त्रिः पिबेच्चापः प्रयतः सुसमाहितः द्विरेब मार्जनं कुर्यात्सकृदभ्युक्षणं ततः । खानि सूर्धानमात्मानं हस्तौ पादौ तथैव च अभ्युक्षणं तथा तस्य यद्यमीमांसितं भवेत् । एवमाचमनं तस्य वेदा यज्ञास्तपांसि च दानानि ब्रह्मचर्य च भवन्ति सफलास्तथा । क्रियां यः कुरुते मोहादनाचम्यैव नास्तिफः ७१६ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ॥४५ दंवकार्य एवं पितरकार्य में परस्पर समानता नही होती, उसमें परस्पर कोई सम्बन्ध नही रहता | दक्षिण वेदी को दाहिने हाथ से रेखाङ्कित करना चाहिये । देवताओं और पितरों - दोनों के यज्ञादि कार्यों में दोनों हाथों से चिकिरण (छोटना) करना कल्याणदायी कहा गया है । क्षुधा से तथा नीद से पीड़ित, मूत्र एवं मल का त्याग करनेवाले, थूकनेवाले—ये सभी अपवित्र रहते हैं । इसी प्रकार भोजनकर, वस्त्रादि धारणकर, जूठे पदार्थ को स्पर्श कर, पैर को अच्छी तरह न धोकर, अज्ञान वश विना यज्ञोपवीत के ही कुछ भोजनादि वस्तुओं का स्पर्श कर, दांत से होठों का स्पर्श कर, चाण्डालादि का दर्शन कर, दाँत मे लगी हुई वस्तुओं का जीभ से स्पर्श कर, शब्द करती हुई उँगलियों से तथा ताकते हुये प्रणाम कर, अज्ञान वश किसी अवर्म भावना में निरत रहकर आचमन करने पर भी अपवित्र रहता है, अतएव उसे चाहिये कि किसी पवित्र स्थान पर बैठकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुखकर विमन होकर हाथों और पैरों को धोकर घुटनों के बीच में हाथों को रखकर स्वस्थ चित्त हो बैठे और तव यज्ञादि की वस्तुओं का स्पर्श करे | उस समय इन्द्रियों को वश में रख सावधान होकर तीन घूँट निर्मल जल पान करे, दो बार मार्जन कर एक बार वस्तुओं का सेचन करे । फिर अपने खानि - आँख, कान, शिर, हाथ पैर आदि का जल से सेचन करे ३५-४३। इसी प्रकार उन अन्यान्य अंगों का भी सेवन करना चाहिये, जिनकी पवित्रता के विषय में कोई मीमांसा न हो । तदुपरान्त आचमन करना चाहिये, जो इस प्रकार विधि-पूर्वक आनमन करते हैं, उनके वेदाध्ययन, यज्ञ, तपस्या, दान, ब्रह्मचर्य-सभी सफल होते है | मास्तिक व्यक्ति विना आचमन किये सत्क्रियाओं को करने लगते है, उनकी सारी क्रिया नष्ट हो जाती है - इसमें

  • इदमों नास्ति ख. ग. पुस्तकयोः |