पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७२४

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सप्तसप्ततितमोऽध्यायः नाम्ना कनकनन्दीति तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् | उदीच्यां मुण्डपृष्ठस्य देवर्षिगणसेवितम् ॥ तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति कामचारा विहंगमाः दत्तं चापि तथा श्राद्धमक्षयं समुदाहृतम् | ऋणैस्त्रिभिस्तदा स्नात्वा निक्षिणोति नरोत्तमः तीरे तु सरसस्तत्र देवस्याऽऽयतनं महत् । आरुह्य तज्जपंस्तन्न सिद्धो याति दिवं ततः उत्तरं मानसं गत्वा सिद्धि प्राप्नोत्यनुत्तमाम् । तत्र गत्वा सुरश्रेष्ठं दृश्यते महद्भुतम् तस्मिन्निवर्तयेज्छ्राद्धं यथाशक्ति यथावलम् | कामान्स लभते दिव्यान्मोक्षोपायं च नित्यशः मानसे सरसि श्रेष्ठे दृश्यते महदद्भुतम् । दिवश्च्च्युता महाभागा ह्यन्तरिक्षं विराजते गङ्गा त्रिपथगा देवी सोमपाद्वाच्युता भुवि । आकाशे दृश्यते तत्र तोरणं सूर्यसंनिभस् जाम्बूनदमयं दिव्यं स्वर्गद्वारमिवाऽऽयतम् । यतः प्रवर्तते भूयः पूर्वसागरमन्तिमम् पावनी सर्वभूतानां धर्मज्ञानां विशेषतः । चन्द्रभागा च सिन्धुश्च उभे मानससंनिभे ॥ सागरं पश्चिमं याति दिव्यसिन्धुर्नदीवरः ७०३ ॥१०५ ॥१०६ ॥१०७ ॥ १०८ ॥१०६ ॥११० ॥१११ ॥११२ ॥११३ देवताओं और ऋषियों के समूहों से सुसेवित तीनों लोको मे परम विख्यात कनकनन्दी नामक तीर्थ है । वहाँ पर स्नान करके इच्छानुरूप विचरण करनेवाले विहंगम स्वग की प्राप्ति करते हैं । २०४-१०५॥ वहाँ पर दिया गया श्राद्ध अक्षय फलदायी कहा गया है । उत्तम मनुष्य उस पुनीत तीर्थ में स्नान करके तीनो ऋणों से मुक्त होते हैं । सरोवर के तीर पर देव का विशाल मन्दिर है, उस पर आरूढ़ होकर मन्त्र जप करने से द्धि होता है तदनन्तर स्वर्ग की प्राप्ति होती है |१०६-१०७ । उत्तर ओर मानस तीर्थ की यात्रा करने से परम सिद्धि की प्राप्ति होती है । वहाँ जाने से सुरश्रेष्ठ का प्रत्यक्ष दर्शन होता है, जो अत्यन्त आश्चर्य का विषय है। वहाँ जाकर अपनी शक्ति एव पराक्रम के अनुसार श्राद्धकर्म सम्पन्न करना चाहिय, जो ऐसा करता है वह दिव्य मनोरथो की प्राप्ति करता है एवं मोक्ष का उपाय सुलभ करता है ।१०८ - १०९। परम श्रेष्ठ उस मानस सरोवर मे एक महान् आश्चर्य दिखाई पड़ता है, वहाँ पर महाभाग्य शालिनी त्रिपथगामिनी गजा देवी आकाशमार्ग से च्युत होकर अन्तरिक्ष में विराजमान है। वह देषी वही पर चन्द्र मण्डल से पृथ्वी तल पर गिरी है। वहाँ आकाशमण्डल मे सूर्य के समान परम तेजोमय तोरण दिखाई पड़ता है। जो सुवर्णमय तथा स्वर्ण के द्वार की भाँति विस्तृत है। वही से जीवों की विशेषतया धर्म के मर्म को जाननेवालो को - उद्धार करनेवाली चन्द्रभागा नामक नदी निकल कर पूर्व के समुद्र मे गिरती है |११० - १११॥ चन्द्रभागा और सिन्धु ये दोनों नदियाँ मानस सरोवर की भाँति पुण्यदायी एवं पवित्र हैं, नदियों में श्रेष्ठ दिव्य गुणयुक्त सिन्धु पश्चिम के समुद्र में गिरती है विविध प्रकार के धातुओं से विभूषित हिमवान् नामक पर्वत है, जो अस्सी सहस्रों योजन विस्तृत कहा जाता है, सिद्धो एवं