पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७२३

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७०२ वायुपुराणम् सकृदेव समुद्रान्ते दृश्यते पुण्यकर्मभिः | गङ्गायां धर्मपृष्ठे च सरसि ब्रह्मणस्तथा गयायां गृध्रकूटे च श्राद्धं दत्तं महाफलम् । हिमं च पतते तत्र समन्तात्पश्चयोजनम् भरतस्याऽऽअमे पुण्येऽरण्यं पुण्यतमं स्मृतम् | मतङ्गस्य पदं तत्र दृश्यते मांसचक्षुपा ख्यापितं धर्मसर्वस्त्रं लोकस्यास्य निदर्शनम् । एवं पश्ववनं पुण्यं पुण्यकृद्भिनिषेवितम् ॥ यस्मिन् पाण्डुविशालेति तीर्थ सद्यो निदर्शनम् 1 तुलामानैस्तथा चापः शास्त्रैश्च विविधैस्तथा । उन्मज्जन्ति तथा लग्ने ये वै पापकृतो जनाः तृतीयायां तथा पादे निःस्वरे पावमण्डले (?) । महाह्रदे वं कौशियां दत्तं श्राद्धं महाफलम् मुण्डपृष्ठे पदं त्यस्तं महादेवेन धीमता । वहून्देवयुगांस्तप्त्वा तपस्तीव्रं सुटुश्वरम् अल्पेनाप्यत्र कालेन नरो धर्मपरायणः । पाप्पानमुत्सृजत्था जोर्णत्वचसिवोरगः सिद्धानां प्रोतिजननैः पापानां च भयंकरैः । लेलिहानैर्महाभोगं रक्षितं तु दिवानिशम् ॥६६ ।।६७ ॥६८ IIEE ॥१०० ॥१०१ ॥१०२ ॥१०३ ॥१०४ स्वर्ण वेदी में भी श्राद्धकर्म के यही फल कहे गये है।९३-९५ | पुण्यकर्म परायणों ने समुद्रान्त में केवल एक श्राद्ध करने का विधान देखा है ! गङ्गा, धर्मपृष्ठ, ब्रह्ममरोवर, गया, गृध्रकूट, प्रभृति तीनों में श्राद्धदान का महान फल है | भरत के पवित्र, पुण्यप्रद आश्रम मे जो अग्ण्य है, वह परम पुण्यदायी कहा है, उसके चारों ओर पाँच योजन तक बरफ गिरता है । उस पवित्र अरण्य मे माँस नेत्रधारी मनुष्य को भी मतंग ऋषि का आश्रम दिखाई पड़ता है |६६-६८ | यह परम पवित्र तीर्थ धर्म सर्वस्व के रूप में प्रसिद्ध किया गया है, एवं इस लोक का धर्म निदर्शक है इसी प्रकार पञ्चवन नामक पुण्यप्रद तीर्थ भी पुण्यात्माओं द्वारा सुसेचित है | उस पञ्चवन तोर्थं ने पाण्डु- विशाला नामक तीर्थ धर्म का प्रत्यक्ष निदशन है |१६| जो पाप करनेवाले मनुष्य होते हैं, वे वहाँ तुलामान चाप और विविध शस्त्रों समेत लग्न आने पर डुवकी लगाते है | तृतीया मे पद निस्वर पावमण्डल (?) महाहृद तथा कौशिकी मे दिया गया श्राद्ध महाफल देनेवाला होता है |१००-१०१। परम बुद्धिमान् महादेव ने मुण्डपृष्ठ में अपना पदन्यास किया था, अनेक देव युगो तक परम कठोर एवं दुर्गम तपस्या उन्होंने वहां की थी । धर्म में आस्था रखनेवाला मनुष्य बहुत थोड़े समय मे हो वहाँ अपने समस्त पापकर्मों को सर्प को केचुल की भाँति छोड़ देता है |१०२-१०३। वह परम पुनीत तीथं सिद्ध जनो के प्रोतिकारी, पापात्माओं के लिये परम भयंकर एवं अपनी विशाल दाढो को लपलपाने वाले महान् सर्पों से रात दिन सुरक्षित है । उस मुण्डपृष्ठ तीर्थ के उत्तर

  • अत्राऽऽत्मनेपदमार्पम् ।