पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७२१

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

वायुपुराणम् अच्छोदकं नाम सरो यत्राच्छोदा समुच्छ्रिता | मत्स्ययोनौ पुनर्जाता नियोगाद्वारणेन तु तस्यां यत्राऽऽश्रयः पुण्यः पुण्यकृद्भिनिषेवितः | सकृदत्तं तु वै श्राद्धमक्षयं समुदाहृतम् ॥ तस्यां योगसमाधाने दत्तं युगपदुद्भवेत् ७०० ॥७६ ।।७७ ॥७८ 1150 कुवेरतुङ्गे व्यामोच्चे व्यासतीर्थे तथैव च | पुण्यः स ब्राह्मणो दद्याच्छ्राद्धमानन्त्यमक्षयम् सिद्धेस्तु सेविता नित्यं दृश्यते नाकृतात्मभिः | अनिवर्तनं तु नन्दायां वेद्यां प्रागुत्तरे ( ? ) दिशि ॥७६ सिद्धक्षेत्रं तु वै जुष्टं यत्प्राप्य न निवर्तते । महालये पदं न्यस्तं महादेवेन धीमता देवालये तपस्तप्त्वा एकपादेन ईश्वरः । नोहारश्च युगं दिव्यमुमातुङ्गे स्थितं जलम् उमातुङ्गे भृगोस्तुङ्गे ब्रह्मतुङ्गे महालये | काद्रवत्यां च शाण्डिल्यां गुहायां वामनस्य च गत्वा चैतानि पूतः स्याच्छ्राद्धमक्षयमेव च । जपो होमस्तथा ध्यानं यत्किचित्सुकृतं भवेत् ब्रह्मचर्यं यजन्ते वै गुरुभक्ताः शतं समाः । एवमादीनि सद्यस्तां स्नात्वा प्राप्नोति सत्फलम् ॥८१ ॥८२ ॥८३ ॥८४ को वह उत्पन्न करेगी ।७४-७५१ वहाँ पर अच्छोदक नामक सरोवर है, जिसमें अच्छोदा नदी के रूप में वह प्रादुर्भूत हुई । पुनः चारण के नियोगवश वह मत्स्य योनि मे उत्पन्न हुई । उसका जहाँ पर पवित्र आसन है, वहीं पुण्यकर्ता जन सर्वदा निवास करते है। उस पवित्र स्थान पर एक वार का दिया हुआ श्राद्ध अक्षय माना गया है | उम अच्छोदा मे श्राद्धदान करने से योग एवं समाधि की एक साथ उद्भावना होती है |७६-७७। कुवेरतुङ्ग व्यामोच्य एवं व्यासतीथं मे जो श्राद्धदान करता है, वह पुण्यकर्त्ता ब्राह्मण है, उसका श्राद्ध अनन्त एवं अक्षय फलदायी है |७८॥ उस स्थान से पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर नन्दा नाम को वेदी है, जो पुर्जंजन्म को रोकनेवाली है, अर्थात् वहाँ पर पिण्डदानादि करने से पुर्जजन्म नही होता । सिद्धजन उसका नित्य सेवन करते हैं, किन्तु अकृतात्माजन (पापोजन) उसे नहीं देख पाते । परम बुद्धिमान् महादेव ने जहाँ पर अपना चरणन्यास किया है, वह सिद्धों का क्षेत्र है, वहाँ पहुँचकर पुनर्जन्म नही होता । देवी के उस पवित्र आयतन मे ईश्वर (महादेव) ने एक चरण पर स्थिर होकर कठोर तपस्या की थी । वहाँ पर उमातुङ्ग मे नीहार ( बरफ ) और जल एक देवयुग से स्थित है |७९-८१ | उस उमातुङ्ग, भृगुतुङ्ग, ब्रह्मतुङ्ग, महालय, काद्रक्ती, शांडिलोगुफा, वामनगुफा आदि पवित्र तीर्थों की यात्रा कर मनुष्य पत्रित्रात्मा हो जाता है, इन सब तीर्थो में किया गया श्राद्ध अक्षय फलदायी कहा गया है, जप, हवन, ध्यान, अथवा जो कुछ भी सत्कर्म यहाँ किये जाते है, सब अक्षय फलदायी होते हैं। ८२-८३ वहाँ पर ब्रह्मचर्य मे निरत रहनेवाले गुरुभक्त विद्यार्थी गण सैकड़ो वर्षो तक यज्ञादि का अनुष्ठान करते रहते है । उस पवित्र तीर्थ में स्नान करके ये उपर्युक्त फल शीघ्र ही प्राप्त किये