पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७२०

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सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ओजसे चाक्षयं श्राद्धं धर्मराजनित्रेशने | श्राद्धं दत्तममावस्यां विधिना च यथाक्रमम् पुनः संनिहितानां वै कुरुक्षेत्रे विशेषवः | अर्चयेद्वा पितृस्तत्र सत्पुत्रस्त्वनृणो भवेत् विनशने सरस्वत्यां प्लक्षत्रावणे तथा| व्यासतीर्थे सरस्वत्यां त्रिप्लक्षं च विशेषतः देयमोक्डारपवने श्राद्धसमयमिच्छता सर्वतश्चैव गङ्गायां मैनाके च नगोत्तमे यमुनाप्रभवे चैत्र सर्वपापैः प्रमुच्यते । अत्युष्णाश्चातिशीताश्च आपस्तत्र निदर्शनम् यमस्य भगिनी पुण्या मार्तण्डदुहिता तथा । तत्रालयं तदा श्राद्धं पितृभिः पूर्वकीर्तितम् ब्रह्मतुङ्ग हदे स्नात्वा लद्यो भवति ब्राह्मणः । तस्मिन्हि श्राद्धमानन्त्यं जपहोमतपांसि च स्थानुभूतश्चं रत्तत्र वसिष्ठो वै महातपाः । अद्यापि यत्र दृश्यन्ते पादपा मणिचर्चिताः तुला तु दृश्यते यत्र धर्माधर्मशिनी | यथा वै तुलितं विप्रॆस्तीर्थानां फलमुत्तमस् पितॄणां दुहिता योगा गन्धकालीति दिश्रुता । चतुर्थो ब्रह्मणश्चांशः पराशरकुलोद्वहः व्यत्य त्वेकं चतुर्था सु वेदं धीमान्महामुनिः । महायोगं महात्मानं यो व्यासं जनयिष्यति ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ।।७० ॥७१ ॥७२ ॥७३ ॥७४ ॥७५ है कि वहाँ पर तिलो का दान करके पितरों को सर्वदा के लिये अक्षय तृप्ति दी जाती है | ६४ | धर्मराज युधिष्ठिर के निवास स्थान पर किया गया श्राद्ध अक्षय फलदायी एवं कीर्ति देनेवाला है। अमावास्या के अवसर पर विधिपूर्वक क्रमानुसार किया गया श्राद्ध तथोक्त फलंदायी होता । विशेषतया कुरुक्षेत्र के समीप निवास करनेवालों के लिये तो वह परम पवित्र है । सत्पुत्र अपने पितरों की वहाँ पूजा करके ऋण रहित हो जाता है १६८-६६। विनशन, सरस्वती के प्लक्षप्रश्रवण, सरस्वती के व्यासतीर्थ, एव ओकारपवन में अक्षय श्राद्ध की इच्छा करनेवाले श्राद्ध करे | गगा मे सर्वत्र श्राद्ध करना चाहिये, पर्वतश्रेष्ठ मैनाक पर श्राद्ध करने का विधान है । ६७-८८। यमुना प्रभवतीर्थ मे श्राद्ध करके मनुष्य समस्त पापो से निवृत्त हो जाता है। उसके अत्यन्त उष्ण और अत्यन्त शीतल जल ही इस तीर्थ के प्रमाण स्वरूप है। यह परमपवित्र यमुना यम की भगिनी और मार्तण्ड की पुत्री है, उसमे किया गया श्राद्ध अक्षय फलदायी होता है - ऐसे पूर्वकाल से पितरो के वचन है | ६६-७०। ब्रह्मतुङ्ग नामक सरोवर में स्नान कर इतर जातिवाले शीघ्र ही ब्राह्मणो की भांति निष्पाप एवं पुण्यात्मा हो जाते है, उसमें श्राद्ध, जप एवं हवनादि करने का अनन्त फल हे १७१। महातपस्वी महपि वसिष्ठ स्थाणुरूप मे वहाँ विचरण करते है, और आज भी वहाँ मणियों से चित्रित वृक्षो की पक्तियाँ दिखाई पड़ती है। वहाँ पर धर्म एवं अधर्म को दिखानेवाली एक तुला (तराजू) दिखाई पड़ती है जिस पर तुलकर ब्राह्मणो के कथनानुसार उत्तम फल की प्राप्ति होती है | २-७३। पितरों की योगपरायण कन्या जो गन्धकाली नाम से विख्यात है, वहाँ निवास करती है । भगवान ब्रह्मा के चतुर्थ अंशस्वरूप, महर्षि पराशर के कुल मे समुत्पन्न परम बुद्धिमान् महामुनि व्यास- देव है, जिन्होंने एक वेद का विस्तार कर चार भागो मे विभाजन किया है, ऐसे परम योगीश्वर महात्मा व्यासदेव