पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१८

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सप्तसप्ततितमोऽध्यायः श्रीद्धं कुम्भे विमुश्वन्ति ज्ञेयं पापनिषूदनम् । श्राद्धं तत्राक्षयं प्रोक्तं जप्यहोसतपांसि च अजतुङ्गे शुभे तीर्थे तर्पयेत्सततं पितृत् । दृश्यते पर्वसु च्छायां यत्र नित्यं दिवौकसाम् ॥ पृथिव्यामक्षयं दत्तं नोरुजा यत्र पाण्डवाः योगेश्वरैः सदा जुष्टं सर्वपापबहिष्कृतैः । दद्याच्छ्राद्धं तु यस्तस्मस्तस्य वक्ष्यामि यत्फलम् अचितास्तेन वै साक्षाद्भवन्ती पितरः सदा । अस्मिल्लोके वशी यः स्यात्प्रेत्य स्वर्गे स मोदते प्रायशः प्रवरः पुण्यः शिवो नाम हृदस्तथा । तत्र व्याससरः पुण्यं दिव्यं ब्रह्मसरस्तथा उज्जन्तः पर्वतः पुण्यो यस्मिन्योगेश्वरालयः । तत्रैव चाऽऽश्रमः पुण्यो वसिष्ठस्य महात्मनः ऋग्यजुःसामशिरसः कापोतः पुष्पसाह्वयः । आख्यातः पञ्चमो वेदो सृष्ट्वा तु गत्वैतान्मुच्यते पापाद्विजो वह्निः सनातनः । श्राद्धं चाऽऽनन्त्यमेतेषु जप्यहोमतपांसि च पुण्डरीके महातीर्थे पुण्डरकिसमं फलम् | ब्रह्मतीर्थे महातीर्थे अश्वमेधफलं लभेत् ६६७ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥ ५४ ॥५५ श्राद्धादि कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, उस पवित्र तीर्थ को पाप विनाशक समझना चाहिये, वहाँ पर किये गये श्राद्ध को अक्षय फलदायी कहा गया है, इसी प्रकार जप, हवन एव तपस्या के बारे मे भी कहा गया है | अजतुंग नामक कल्याणदायी पवित्रतीर्थ मे सर्वदा पितरो का तर्पण करना चाहिये, जहाँ पर पर्वो के अवसर पर देवताओ को छाया दिखलाई पड़ती है। समस्त पृथ्वी मण्डल मे इस पवित्र तीर्थ का दान अक्षय बतलाया जाता है पाण्डव गण यही पर रोगमुक्त हुये थे |४७-४८ | सभी प्रकार के पाप पूर्ण कर्मों से विरक्त रहने- वाले योगेश्वरों द्वारा सुसेवित उस परमपवित्र तीर्थ मे जो लोग श्राद्ध करते है, उसका फल बतला रहा हूँ । उस परम पवित्र तीर्थ मे साक्षात् पूजित होकर पितरगण सर्वदा प्रसन्न रहते है, इस लोक मे जो इन्द्रियों को स्ववश रखनेवाला है वह मृत्यु के बाद स्वर्ग मे आनन्द का अनुभव करता है।४६-५०० परम पवित्र शिव नाम का एक ह्रद है, वही पर दिव्यगुण युक्त व्याससर एवं ब्रह्मसर नामक दो सरोवरो की भी स्थिति है उज्जन्त नामक पुण्यप्रद पर्वत भी वही है, जिसमे बड़े-बड़े योगीश्वर लोग निवास करते है । महात्मा वसिष्ठ का पुण्य आश्रम भी वही है |५१-५२। इन्ही तीर्थो के मध्यभाग मे ऋक् यजु, सामवेद का शिर स्वरूप (?) कापोत अथवा पुष्प (?) नामक तीर्थ की रचना भगवान् ब्रह्मा ने की है, जो पाँचवे वेद के नाम से विख्यात है। इन पावत्र तीर्थों की यात्रा कर ब्राह्मण सनातन अग्नि की भी भांति तेजस्वी होकर पाप मुक्त हो जाता है, इसमे श्राद्ध का अनन्त माहात्म्य वर्णित किया गया है जप, हवन एव तपस्या के लिए भी अनन्त फल कहा गया है |५३-५४ पुण्डरीक नामक महातीर्थ मे श्राद्ध का पुण्डरीक (कमल) के समान मनोहर फल होता है ब्रह्मतीर्थ नामक महातीर्थं में अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है १५५१ सिन्धुसागर सम्भेद तथा पचनद तीथ मे अक्षय फल की प्राप्ति होती फा०-८५