पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१६

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सप्तसप्ततितमोऽध्यायः उदकानयनं कृत्वा शङ्खमौक्तिकसंयुतम् । आधिभिर्व्याधिभिश्चैव मुक्ता यान्त्यमरावतीम् चन्दनेभ्यः प्रयुक्तानां शङ्खानां मौक्तिकस्य च । तापकर्तृ नपि पितृ स्तारयन्ति यथाश्रुति

  • चन्द्रतीर्थे वरे पुण्ये पुण्यकृद्भिनिषेविते | चन्द्रतीर्थे कुमार्या तु कावेर्या प्रभवेऽक्षये ॥

श्रीपर्वतस्य तीर्थेषु वैकृते च तथा गिरौ ॥२६ ।।२७ ॥२८ ॥२६ ॥३१ एकस्था यत्र दृश्यन्ते वृक्षा ह्यौशिरपर्वते । पालाशाः खादिरा बिल्वा प्लक्षाश्वत्थविकङ्कताः एतद्धि मण्डलं सिद्धं यज्ञियं द्विजसत्तमाः । अस्मिन्मुक्त्वा जनोऽङ्गानि क्षिप्रं यात्यमरावतीम् ॥३० कर्माणि स्वप्रयुक्तानि सिध्यन्ति प्रभवात्यये । दुष्प्रसक्तानि पितृषु प्रयुक्तानि भवन्त्युत पितॄणां दुहिता पुण्या नर्मदा सरितां वरा । तत्र श्राद्धानि दत्तानि अक्षयाणि भवन्त्युत माठरस्य वने पुण्ये सिद्धचारणसेवितम् । अन्तर्धानं न गच्छन्ति सक्तास्तस्तस्मिन्महागिरौ विन्ध्ये चैव गिरौ पुण्ये धर्माधर्मनिदर्शनम् । पापधारां न पश्यन्ति धारां पश्यन्ति साधवः तस्यां तु दृश्यते पापं केषांचित्पापकर्मणाम् । स्पष्टा भवति सा धारा प्रायशः शुभकर्मणाम् ॥३२ ॥३३ ॥३४ ॥३५ लाते हैं, वे समस्त आघि व्याधिओं से मुक्त होकर अमरावती को प्राप्त करते हैं | २६ | चन्दनों से संयुक्त शंखों और मुक्ताओं के दान करने से वहाँ पर लोग अपने पाप करने वाले पितरों का भी उद्धार कर देते हैं — ऐसी श्रुति है |२७| पुण्यात्मा जनों द्वारा सुसेवित चन्द्र नामक पुण्यप्रद तीर्थ में, कुमारी में, कावेरी में, अक्षय प्रभव में, श्रोपर्यंत के तीर्थ में वैकृत नामक पर्वत पर, औशिर नामक पर्वत पर्वत पर भी, जहाँ पर कि पलाश, खदिर, वेल, पाकड़, पोपल, विकङ्कत आदि के पेड़ एक ही स्थान पर दिखाई पड़ते हैं, पितरों का लोग उद्धार करते है । हे द्विजवर्यगण ! यह तीर्थों का समूह यज्ञ करने के लिये समुचित तथा सिद्धि देनेवाला है, इनमें अपने अंगों (शरीर) को छोड़ देनेवाला मनुष्य अमरावती को प्राप्त करता है | २८-३०। इन पवित्र तीर्थों में किये गये स्वकर्मों के फल अन्य जन्म में मिलते है, एव पितरों के उद्देश्य से अल्प रूप में भी कठिनाई से किये गये कर्म अच्छी तरह से किये गये कर्मों का फल प्रदान करते हैं । पितरों की कन्या नर्मंदा समस्त सरिताओं में श्रेष्ठ एवं पुण्य प्रदायिनी है, उसके तट पर किये गये श्राद्धादि कर्म अक्षय फलदायी होते हैं |३१-३२॥ सिद्धों और चारणों से सुसेवित माठर के पवित्र वन में वे अन्तहित नही होते, क्योकि उस महान् गिरि में उनकी आसक्ति है |३३ | पवित्र विन्ध्य गिरि में धर्मी एवं अधर्मी की पहचान के लिये यह देखा जाता कि जो पापात्मा हैं वे धारा को नही देख पाते, केवल साधुगण उसका दर्शन करते हैं |३४| उस धारा में किन्ही पाप कर्मियों के पाप दिखाई पड़ते हैं । प्रायः शुभ कर्म करने वालों को हो वह धारा स्पष्ट दिखाई पड़ती है |३५| कोशला में मतग

  • इदमघं नास्ति ख. ग. घ. ङ्. पुस्तकेषु ।