पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१५

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६६४ वायुपुराणम् धन्यास्ते पुरुषा लोके ये प्राप्यामरकण्टकम् | पितृन्संतर्पयिष्यन्ति श्राद्धे पितृपरायणाः अल्पेन तपसा सिद्धि गमिष्यन्ति न संशयः । सकृदेवाचितास्तत्र स्वर्गममरकण्टके महेन्द्रपर्वते रम्ये पुण्यं शक्तनिषेवितम् । तत्राऽऽरुह्य भवेत्प्रीतिः श्राद्धं चैव महत्फलम् बिल्वाधः शिखरे युक्ता दिव्यं चक्षुः प्रवर्तते । अदृश्यं चैव भूतानां देववच्चरते महीम् सप्तगोदावरे चैव गोकर्णे च तपोवने । अश्वमेधफलं तत्र स्नात्वा च लभते नरः धूतपापस्थलं प्राप्य पूतः स्नात्वा भवेन्नरः । रुद्रस्तत्र तपस्तेपे देवदेवो महेश्वरः गोकर्णे वर्णितं विप्रैर्नास्तिकानां निदर्शनम् | अब्राह्मणस्य सावित्री पठतः संप्रणश्यति देवर्षिभवने शृङ्गे सिद्धचारणसेविते । आरुह्य तं तु नियमात्ततो यान्ति त्रिविष्टपम् दिव्यं चन्दनवृक्षैश्च पादपैरुपशोभितम् | आपश्चन्दनसंपृक्ता वहन्ति सततं यतः नदी प्रवर्तते ताभ्यस्ताम्रपर्णीति नामतः । योषेव समदाखेदा दक्षिणं याति सागरम् नद्यास्तस्यास्तु या आपो सूर्च्छमाना महोदधौ । शङ्खा भवन्ति मुक्ताश्च जायन्ते शङ्खमुक्तिकाः ॥२५ ॥२४ 1 ॥१५ ॥१६ ॥ १७ ॥१८ ॥२६ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ कि इस लोक में वे पुरुष धन्य है, जो अमरकण्टक पर्वत पर जाकर अपने पितरों में श्रद्धा भाव रखकर श्राद्ध में उन को सन्तुष्ट करेंगे | उस पर्वतराज अमरकण्टक पर अल्प तपस्या द्वारा हो लोग सिद्धि प्राप्त करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है कि एक ही बार पूजित होकर, पितरगण वहाँ पर स्वर्ग प्राप्त करते हैं । १३-१६। परम रमणीय महेन्द्र पर्वत पर इन्द्र द्वारा सेवित एक पुण्यप्रद स्थान है, वहाँ पर आरोहरण करने से पितरगणों को परम प्रस्नन्नता होती है और श्राद्ध का महान फल होता है | १७ | विल्वाध (?) शिखर पर जाने से दिव्य नेत्र की प्राप्ति होती है, जिससे मनुष्यों से अदृश्य होकर देवताओ की भांति पृथ्वी पर विचरण करता है ।१८। सप्त गोदाबर तथा गोकर्ण नामक तपोवन में स्नान कर मनुष्य अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करता है ।१६ धूतपाप नामक स्थान पर जाकर स्नान करनेवाला, मनुष्य परम पवित्र हो जाता है, वहाँ पर देव-देव महेश्वर शंकरजो ने परम कठोर तपश्चर्या की थी |२०| उस गोकर्ण नामक स्थान के विषय में ब्राह्मण लोग नास्तिकों के लिये एक प्रधान लक्षण यह बतलाते हैं कि जो लोग ब्राह्मण न होकर वहाँ गायत्री का पाठ करते हैं, उसको सावित्री नाश को प्राप्त होता है । २१ सिद्धों और चारणों से सेवित देवर्षि के भवन वाले शिखर पर नियमपूर्वक आरोहण करने- वाले मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। क्योंकि उस परम रमणीय शिखर प्रदेश में दिव्य चन्दनादि के वृक्ष परम शोभा बढ़ाते हैं, और चन्दन मिश्रित जल की शीतल घारा निरंतर प्रवाहित होती है |२२-२३॥ उन जल धाराओं से ताम्रपर्णी नामक नदी प्रवाहित होती है, जो उस पर्वतराज की मदोम्मत्त एवं खेद से थकी हुई बाला की तरह शनैः शनैः दक्षिण के समुद्र में जाकर मिलती है |२४| उस ताम्रपर्णी को जलराशि महासमुद्र में मिलकर शङ्ख- मुक्ता और शङ्खमुक्तिका के रूप में उत्पन्न होती है | २५। जो मनुष्य शङ्ख और मुक्ताओं के समेत उसके जल को