पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१४

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सप्तसप्ततितमोऽध्यायः पुण्यो यस्त्रिषु लोकेष्वमरकण्टकपर्वतः । पर्वतप्रवरः पुण्यः सिद्धचारणसेवितः यत्र वर्षसहस्राणि प्रयुतान्यर्बदानि च । तपः सुदुश्वरं तेपे भगवानङ्गिराः पुरा यत्र मृत्योर्गतिर्नास्ति तथैवासुररक्षसाम् । न भयं चैव वाऽलक्ष्मीर्यावभूमिर्धरिष्यति तेजसा यशसा चैव भ्राजते स नगोत्तमः । शृङ्गमाल्यवतो नित्यं वह्निः संवर्तको यथा मृदवश्च सुगन्धाश्च हेमाभाः प्रियदर्शनाः । शान्ताः कुशा इति ख्याताः पिबन्दक्षिणनर्मदाम् दृष्टवान्स्वर्गसोपानं भगवानङ्गिराः पुरा | अग्निहोत्रे महातेजाः प्रस्तरार्थकुशोत्तमान् तेषु दर्भेषु पिण्डान्योऽमरकण्टकपर्वते । दद्यात्सकृदपि प्राज्ञस्तस्य वक्ष्यामि यत्फलम् तद्भवत्यक्षयं श्राद्धं पितॄणां प्रीतिवर्धनम् । अन्तर्धानं च गच्छन्ति क्षेत्रमासाद्य तत्सदा तत्र ज्वालारसः पुण्यो दृश्यतेऽद्यापि सर्वशः । सशल्यानां च सत्त्वानां विशल्यकरणी नदी प्रादूर्गाक्षिणा तु सावर्ता वापी सा पर्वतोत्तमे । कलिङ्गदेशपार्श्वार्धे पितॄणां प्रीतिवर्धनम् सिद्धक्षेत्रसृषिश्रेष्ठा यदुक्तं परमं भुवि | संमतो देवदैत्यानां श्लोकमप्युशना जगो ६६३ ॥४ ॥५ ॥६ ॥७ ॥८ HIE ॥१० ॥११ ॥१२ ॥१३ ॥१४ अनुग्रह करते हैं । जो तीनों लोकों में पुण्यप्रद है वह अमरकण्टक सभी पर्वतों में श्रेष्ठ, पुण्यदायी तथा सिद्ध और चारणों द्वारा सेवित है | २-४ | जिन पर सहस्रों क्या करोड़ों अरबों बरस तक प्राचीनकाल में भगवान् अंगिरा ने परम कठोर तपस्या की थी |५| जहाँ पर मृत्यु की भी गति नहीं है, असुर एवं राक्षसों से भी भय नही है तथा जब तक भूमि स्थित रहेगी तब तक लक्ष्मी का अभाव नहीं रहेगा, वह उत्तम नगराज अपने परम तेज एवं यश से सुशोभित है | उसके परम उच्च शिखर के वृक्षों पर खिले हुये पुष्पों से उसको शोभा संवर्तक अग्नि की तरह है |६-७। इस पर्वतराज पर उगनेवाले कुश अति मृदु, सुगन्धित सुषंण के समान कान्तिवाले, देखने में मनोहर तथा शान्ति उत्पन्न करनेवाले प्रसिद्धं हैं । प्राचीनकाल में महान् तेजस्वी भगवान् अंगिरा ने अग्निहोत्र में पृथ्वी पर विछाने के लिये इन उत्तम कुशों का उपयोग किया था, दक्षिण भाग में नर्मदा के जल का पान किया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें स्वर्ग के सोपान दिखाई पड़े थे । जो बुद्धिमान् व्यक्ति पवित्र अमरकण्टक पर्वत पर उन्ही कुशों पर एक बार भी पिण्डदान करता है, उसके फल को बतला रहा हूँ । उसका किया हुआ वह श्राद्ध पितरों को परम प्रसन्न करनेवाला एवं अक्षय फलप्रदायी है । सर्वंदा इस पवित्र क्षेत्र को प्राप्त हो कर चे अन्तर्हित हो जाते हैं 15 - ११ । आज भी उस पवित्र पर्वत पर ज्वाला सरोवर (?) सम्पूर्ण रूप में दिखाई पड़ता है, हड्डीवाले जीवों को रोग मुक्त करनेवाली विशल्यं करणी नामक नदी है |१२| उस पर्वतराज अमरकण्टक पृष्ठभाग पर पूर्व दक्षिण दिशा में फैली हुई वह पवित्र बावली है । कलिङ्गदेव के पार्श्वभाग में पितरों को अति प्रसन्न करनेवाला सिद्धक्षेत्र है, हे ऋषिश्रेष्ठगण ! वह स्थान पृथ्वी तल पर देवता और दैत्य - दोनों ही को वह सम्माननीय है। उसकी प्रशंसा शुक्राचार्य भी के पवित्र कहा जाता है । इस रूप में करते हैं