पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१३

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६६२ वायुपुराणम् स्वधां वाच्य ततो विप्रा विधिवद्भूरिदक्षिणान् | अन्नशेषमनुज्ञाप्य सत्कृत्य द्विजसत्तमान् ॥ प्राञ्जलिः प्रयतश्चैव अनुगम्य विसर्जयेत् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पो नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ||७६|| थसप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥४३ श्राद्धकल्पः बृहस्पतिरुवाच ॥१ सकृदयचिताः प्रीता भवन्ति पितरोऽव्ययाः | योगात्मानो महात्मानो विपाप्मानो महौजसः प्रेत्य च स्वर्गलाभाय कावेश्वर्यं सुविस्तरम् | येषां चाप्यनुगृह्णन्ति मोक्षप्राप्तिक्रमेण तु ॥२ तानि वक्ष्याम्यहं सौम्याः सरांसि सरितस्तथा । तोर्थानि चैव पुण्यानि देशाञ्शैलांस्तथाऽऽश्रमान् ॥३ विकिरण' करे । तदनन्तर ब्राह्मणों से स्वधा वाचन करा के प्रचुर दक्षिण प्राप्त उत्तम ब्राह्मणों का विधिवत् सत्कार कर शेष अन्न की आज्ञा प्राप्त कर, हाथ जोड़, मन एवं इन्द्रियों को स्ववश रख कुछ दूर तक उनको पहुँचा कर विसर्जन करे ।४२-४३। श्रीवायुमहापुराण में श्राद्धकरूप नामक छिहत्तरवाँ अध्याय समाप्त ||७६|| अध्याय ७७ श्राद्धकल्प बृहस्पति जी वोलेः- सौम्यगण ! ये पितरगण केवल एक बार पूजा प्राप्त कर लेने पर परम प्रसन्न हो जाते हैं, ये कभी नष्ट होनेवाले नही है, योगी हैं, महात्मा है, पाप रहित हैं, महान् तेजस्वी हैं |१| अब मैं इस जन्म के उपरान्त स्वर्ग लाभ करानेवाले, विस्तृत मनोरथ एवं एश्वर्य को देनेवाले, मोक्ष प्राप्ति के सहायक उन सरोवरों, सरिताओं, पुण्यप्रद तीर्थो, देशों एवं पर्वतों का वर्णन कर रहा हूँ, जिन पर (पितरगण) १. विघ्नों को दूर करने के लिये फेंकी गयी गई श्वेत सरसों आदि वस्तुएँ ।