पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१२

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षट्सप्ततितमोऽध्यायः ६६१ एकं विप्राः पुनः प्राहुः पिण्डोद्धरणमग्रतः | अनुज्ञाते तु तैविप्रवनिमुद्धि (द्धि ) यतामिति ( ? ) ॥३५ पुष्पाणां च फलानां च भक्ष्याणामन्नतस्तथा । अग्रमुद्धृत्य सर्वेषां जुहुयाज्जातवेदसि, भक्ष्यमन्नं तथा पेयमनुत्तमफलानि च । हुत्वा चाग्नौ ततः पिण्डान्निर्वपेद्द क्षिणामुखः ॥३६ ॥३७ (* वैवस्वताय सोमाय हुत्वा पिण्डं निवेद्य सः । उदकानयनं कृत्वा पश्चाद्विप्रांश्च भोजयेत् ॥ आनुपूर्व्यात्तथा विप्रान्भक्ष्यैरनैश्च शक्तितः स्निग्धैर्भक्ष्यैः सुगन्धैश्च तर्पयेत रसैस्तथा । एकाग्रः पर्युपासीत प्रयतः प्राञ्जलिःस्थितः ॥ तत्परः श्रद्दधानश्च कामानाप्नोति मानवः अक्षुद्रत्वं कृतज्ञत्वं दाक्षिण्यं सत्कृतं च यत् । ततो यज्ञं च दानं च प्रयच्छन्ति पितामहाः अतः परं विधि सौम्यं भुक्तवत्सु द्विजातिषु । आनुपूर्येण विहितं तन्मे निगदतः शृणु प्रोक्ष्य भूमिमथोद्धृत्य पूर्व पितृपरायणः । ततोऽत्र विकिरं कुर्याद्विधिदृष्टेन कर्मणा ॥३८ ★ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ आगे बतलाते हैं, उन विनों की पिण्डों का उद्धार कीजिये, —ऐसी आज्ञा (?) प्राप्त हो जाने पर यह विधि करनी चाहिये । पुष्प, फल भक्ष्य, अन्न इन सब के अग्रभाग को नोंचकर सर्वप्रथम अग्नि में हवन कर देना चाहिये । पिण्डदान करनेवाले व्यक्ति दक्षिण ओर मुख करके विविध खाद्य सामग्रियाँ, अन्न, पोने की सामग्रियाँ अत्युत्तम फल – इन सब वस्तुओं को अग्नि में हवन करने के उपरान्त पिण्डदान करे |३५-३७॥ वैवस्वत ( यम ) और सोम को पिण्ड निवेदन करने के उपरान्त जलानयन कर लेने पर पीछे ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। उन्हें विविध खाद्य पदार्थों एवं अन्नादि द्वारा अपनी शक्ति भर वस्तुओं का क्रमशः भोजन कराना चाहिये । चिकने खाद्य पदार्थ, सुगंधित खाद्य पदार्थ से सन्तुष्ट करके विविध रसों द्वारा तृप्त करे । तदनन्तर अकेले एकान्तचित होकर हाथ जोड़े हुये उनकी विधिवत् पूजा करे। इस श्राद्धकर्म में तत्पर एवं श्रद्धा रखने वाला मनुष्य अपने सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करता है | ३५-३६| पितामहगण उसे अक्षुद्रता ( महत्त्व ) कृतज्ञता चतुरता, सत्कार, यज्ञ, दान आदि को शक्ति देते हैं । ऋषि वृन्द ! अब इसके उपरान्त ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर जो जो क्रियाएँ श्राद्धकर्म में होती हैं, उन्हें मैं वतला रहा हूँ, सुनिये ४०-४१। सबसे पहले पितरों में भक्ति रखनेवाला भूमि का सिंचन एवं उसका परिष्कार करके विधान के अनुसार में धनुविचह्नान्तर्गतग्रम्थः क. पुस्तके नास्ति ।