पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७१०

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षट्सप्ततितमोऽध्यायः वेदे पञ्च महायज्ञा नराणां समुदाहृताः । एतान्पञ्च महायज्ञान्शिर्वपेत्सततं नरः यत्र यास्यन्ति दातारः संस्थानं वं निबोधत । निर्भयं निरहंकारं निःशोकं निर्व्यथक्लमम् ॥ ब्रह्मस्थानमवाप्नोति सर्वकामपुरस्कृतम् शुद्रेणापि प्रकर्तव्याः पंचैते मन्त्रवर्जिताः । अनोऽन्यथा तु यो भुङ्क्ते स ऋणं नित्यमश्नुते ऋणं च भुङ्क्ते पापात्मा यः पचेदात्मकारणात् । तस्मान्निर्वर्तयेत्पश्च महायज्ञान्सदा बुधः नैवेद्यं केचिदिच्छन्ति जोवत्यपि प्रयत्नतः । उदक्पूर्वं बल कुर्यादुदकुंभं तथैव च बल सुविदितं कुर्यादुच्चादुच्चतरं क्षिपेत् । परशृङ्गगवां पूर्व बल सूक्ष्मं समुत्क्षिपेत् न निवेद्यो भवेत्पिण्डः पितॄणां यस्तु जीवति । इष्टेनान्नेन भक्ष्यैश्च भोजयेत यथाविधिः ॥ विधानं वेदविहितमेतद्वक्ष्यामि यत्नतः देवदेवा महात्नानो ह्येतेऽपि पितरो ह्यत | इच्छन्ति केचिदाचार्याः पश्चात्पिण्डनिवेदनम् पूजनं चैव विप्राणां पूर्वमेव हि नित्यशः । तद्विधर्मार्थ कुशलानित्युवाच बृहस्पतिः ६८६ ॥१७ ॥१८ ॥१ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ को चले गये ।१५-१६। वेद में मनुष्यों के लिये पाँच महायज्ञों की चर्चा की गयी है— इन पांचों यहायज्ञों का मनुष्य सर्वदा अनुष्ठान करे । इन (पाँचों महायज्ञों) के देनेवाले ( अनुष्ठान करनेवाले) जिस स्थान को जाते हैं, उसे सुनिये | भय रहित, अहंकार से सर्वदा विहीन शोक रहित, परिश्रम को दूर करनेवाले, सभी मनोरथों को पुरस्त करने वाले ब्रह्म के स्थान को वे प्राप्त करते हैं। ये पाँचों महायज्ञ - केवल मंत्रोच्चारण को छोड़कर - शूद्रों को भी करने चाहिये । इन के विना जो भोजन करता है वह नित्य ऋण का भक्षण करता है। १७-११। जो केवल अपने लिये भोजन बनाता है वह पापात्मा है और ऋण का भोजन करता है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को इन पाँचों महायज्ञों का सर्वदा अनुष्ठान करना चाहिये |२०| कुछ लोग पितरों के जीवित रहते समय भी नैवेद्य करने की इच्छा करते है । तदनन्तर उसके लिये जल दान पूर्वक बलि देनी चाहिये, जल का कलश भी देनी चाहिये |२' । ऊँचे से भी ऊँचे स्थान पर से भली प्रकार विहित बलि देनी चाहिये । सूक्ष्म (स्वल्प ) मात्रा में बलि को लेकर सोंगोंवाले गोओं के ऊपर छोड़नी चाहिये |२२| जीवित पितरों के लिये पिण्डदान नहीं है । उन्हें केवल विधिपूर्वक सुन्दर पसन्द आनेवाले अन्नों एवं अन्यान्य भक्ष्य भोज्य पदार्थों को खिलाना चाहिये । यह वेदों से सम्मत विधान है, अत इसे यत्नपूर्वक बतला रहा हूँ |२३| ये पितरगण देवताओं के देवता एवं परम महात्मा हैं | कुछ आचार्य लोग श्राद्धकर्म में सर्व प्रथम ब्राह्मणों का पूजन तदनन्तर पिण्डदान के विधान की इच्छा करते हैं |२४| इस प्रक्रिया के मानने वाले धर्मार्थ में कुशल आचार्यों से बृहस्पति कहते हैं | महात्मा पितरगण परम योगाभ्यास परायण, योग सम्भव एवं योगिराट् हैं, ये लोग चन्द्रमा को भी सन्तुष्ट करने फा०-८७