पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७०८

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षट्सप्ततितमोऽध्यायः थ षट्सप्ततितमोऽध्यायः कल्पः सूत उवाच देवाश्च पितरश्चैव तेभ्योऽन्ये पितरस्तथा । आथर्वणविधिह्येव प्रत्युवाच बृहस्पतिः पूजयेच्च पितॄन्पूर्वं देवांश्चापि विशेषतः । देवेभ्योऽपि पितपूर्वसर्चयन्तीह यत्नतः दक्षस्य दुहिता ख्याता लोके विश्वेति नामतः । विधिना सा तु धर्मज्ञ दत्ता धर्माध धर्मतः ॥ तस्याः पुत्रा महात्मानो विश्वे देवा इति श्रुतिः प्रख्यातास्त्रिषु लोकेषु सर्वलोकनमस्कृताः । समस्तास्ते महात्मानश्चेरुरुग्रं महत्तपः हिमवच्छिखरे रम्ये देवगन्धर्वसेविते | सर्वाप्सरोभिश्चरितं देवगन्धर्वसेवितम् शुद्धेन मनसा प्रोताः पितरस्तानानुवन् । वरं वृणीध्वं प्रीताः स्म कं कामं करवामहे एवमुक्तं तु पितृभिस्तदा त्रैलोक्यभावनः । प्रजानामधिपो ब्रह्मा विश्वानितीदमब्रवीत् ६८७ ॥२ ॥३ ॥४ 11% ॥६ ॥७ अध्याय ७६ श्राद्धकल्प पितरो की विशेष तथा सूत कहा- ऋषि वृन्द ! वृहस्पतिजी ने अथर्व वेद के अनुसार यह विधि बतलाई है कि जो देवगण पितरों के नाम से विख्यात हैं, उनके अतिरिक्त अन्य भी पितरगण हैं। पहले और देवताओं की बाद में पूजा करनी चाहिये । इस लोक मे ऐसी प्रथा है कि पत्न पूर्वक देवताओं से भी प्रथम पितरों की पूजा लोग करते हैं |१-२॥ हे धर्मज्ञ, प्राचीनकाल में दक्ष की एक विश्वा नाम की पुत्री थी, जो लोक प्रसिद्ध थी, विधि एवं धर्म पूर्वक उसे दक्ष ने धर्म को समर्पित की थी। उससे उत्पन्न होनेवाले महात्मा पुत्रमण विश्वेदेवा के नाम से प्रसिद्ध हुये - ऐसा सुना जाता है |३| वे विश्वेदेवागण सभी लोगों के नमस्करणीय एवं त्रैलोक्य विख्यात है। सब के सब उन महात्मा विश्वेदेवों ने देवताओं और गन्धर्वो से सुसेवित हिमवान के मनोहर शिखर पर सम्पूर्ण अप्सराओं देवताओं और गन्धर्वो द्वारा पालन किये गये परम कठोरा तप को किया | उनके उस महान् तप से परम प्रसन्न होकर पितर गण शुद्ध मन से बोले, विश्वेदेवगण ! हम आप लोगों से परम प्रसन्न है, वरदान माँगिये, हम आपके कौन-से मनोरंथ पूर्ण करें। पितरों के ऐसा कहने पर त्रैलोक्य की उत्पक्ति करनेवाले प्रजापति ब्रह्मा ने विश्वेदेवों से यह कहा ॥४-७१