पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७०७

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वायुपुराणम् समानप्लक्षन्यग्रोधप्लक्षाश्वत्थविकङ्कृताः । उदुम्बरास्तथा बिल्वचन्दना यज्ञियाश्च ते सरलो देवदारुश्च शालश्च खदिरस्तथा । समिदर्थं प्रशस्ताः स्युरेते वृक्षा विशेषतः ग्राम्याः कण्टकिनश्चैव यज्ञिया येन केन च । पूजिताः समिदर्थे तु पितॄणां वचनं तथा समिद्भिः कल्कलेयाभिर्जुहुयाद्यो हुताशनम् । फलं यत्कर्मणस्तस्य तन्मे निगदतः शृणु आयसं सर्वकामीयमश्वमेधफलं हि तत् । श्लेष्मान्तको नक्तमालः कपित्थः शाल्मलिस्तथा नीपो विभोतकरचैव वल्लीभिश्च तथैव च । शकुनानां निवासश्च वर्जयेच्च महीरुहान् ॥ अयज्ञियाः स्मृता ये च वृक्षांश्चैव दर्जयेत् स्वधेति चैव मन्त्रान्ते पितॄणां वचनं तथा । स्वाहेति चैव देवानां यज्ञकर्मण्युदाहृतम् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पो नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ||७५|| ६८६ ॥७१ ॥७२ ॥७३ ॥७४ ॥७५ ॥७६ १।७७ के विकंकत, उदुम्बर (गूलर) बिल्व, चन्दन ये वृक्ष यज्ञ कार्य के लिये उपयोगी है । सरल, देवदारु, शाल, खदिर- विशेषतया ये वृक्ष भी यज्ञ की समिधा के लिये प्रशस्त माने गये है |७१-७२। ग्रामो मे उत्पन्न होनेवाले कण्टकी वृक्ष भी यज्ञ के कार्यो मे यत्र कुत्र समिधा के लिये पूजित व्यवहार मे आते हैं - ऐसी पितरों की आज्ञा है |७३। कल्कल की समिधाओं द्वारा जो अग्नि मे हवन करता है, उसके इस कर्म से जो फलप्राप्ति होती है, उसे मैं बतला रहा हूँ, सुनिये |७४ | आयस की समिधा सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाली तथा अश्वमेघ यज्ञ का फल देनेवाली है । श्लेष्मान्तक, नक्तमाल, कपित्थ, (कैथा) शाल्मलि (सेमर) नीप ( कदम्ब, विभीतक (बहेड़ा) वल्लियाँ तथा वे वृक्ष, जिनपर पक्षियों का निवास हो, यज्ञ कार्य मे वर्जित रखने चाहिये । इनके अतिरिक्त वे अन्यान्य वृक्ष जो यज्ञकार्य मे निषिद्ध माने गये हैं, वर्जित रखने चाहिये । पितरों के उद्देश्य से पढ़े जानेवाले मंत्रो के अन्त में स्वधा का और देवताओं के यज्ञो में उनके उद्देश्य से पढे जानेवाले मंत्रों के अन्त में स्वाहा का उच्चारण करना चाहिये - ऐसा नियम बतलाया गया है ।७५-७७१ श्रीवायुमहापुराण में श्राद्धकल्प नामक पचहत्तरवां अध्याय समाप्त ॥७५॥