पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७०३

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६८२ वायुपुराणम् शुक्लाः सुमनसः श्रेष्ठास्तथा पद्मोत्पलानि च । गन्धवन्त्युपपन्नानि यानि चान्यानि कृत्स्नशः जपासुमनसो भण्डीरूपकामकुरण्डकाः । पुष्पाणि वर्जनीयानि श्राद्धकर्मणि नित्यशः यानि गन्धादपेतानि उन्नगन्धीनि यानि च । वर्जनीयानि पुष्पाणि भूतिमन्विच्छता तथा द्विजातयस्तथाऽन्विष्टा नियताः स्युरुदङ्मुखाः । पूजयेद्यजमानस्तु विधिवद्दक्षिणामुखः तेषामभिमुखो दद्यादर्भान्पिण्डांश्च यत्नतः । अनेन विधिना साक्षादर्चयेत्स्वान्वितामहान् हरिता वै सपिञ्जूल्यः पुष्पस्निग्धाः समाहिताः । रत्निमात्र प्रदानेन पितृतीर्थेन संस्थिताः उपसूले तथा नीलाः प्रस्तराद्यकुलोद्यमाः । तथा श्यामाकनोवारा दुर्वाराः समुदाहृताः पूर्व कीर्तितवाञ्श्रेष्ठो बभूवाथ प्रजापतिः | तस्य बाला निपतिता भूमौ चाssकाशमार्गतः तस्मान्मेध्याः सदा काशाः श्राद्धकर्मणि पूजिताः । पिण्डनिर्वपणं तेषु कर्तव्यं भूतिमिच्छता प्रजापुष्टिद्युतिः कीतिः प्रज्ञाकान्तिसमन्विता । भवन्ति रुचिरा नित्यं विपाप्मानोऽघर्वाजताः सकृदेवाऽऽस्तरेद्दर्भान्पिडार्थ दक्षिणामुखः । प्राग्दक्षिणाग्रनियतो विधि चाप्यनुवक्ष्यति ॥३३ ॥३४ ||३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४ ॥४१ ॥४२ ॥४३ एवं अन्यान्य जितनी सुगन्धित वस्तुएँ है - वे सव भी शुभ हैं। जपा, भण्डोर, रूपकाम एवं कुरण्डक के पुष्पों को श्राद्धकर्म में सर्वदा वर्जित रखने चाहिये । वल्याण की कामसा करनेवाले व्यक्ति को, निर्गन्ध अथवा अति तीक्ष्ण गन्ध वाले पुष्पो को श्राद्धकर्म में वर्जित रखना चाहिये । श्राद्धकर्म में यजमान को चाहिये कि वह दक्षिणाभिमुख होकर विधिपूर्वक आमन्त्रित उत्तराभिमुख बैठे हुए जितेन्द्रिय ब्राह्मणों की पूजा करे १३२-३६॥ तदनन्तर उनके सामने यत्नपूर्वक पिण्डों को और कुशों को दे, इस विधि से अपने पितामहों की पूजा करे । पुष्पो से संयुक्त सरल सीधी हरो पिज्जूलियाँ (?) वहाँ रखे, पितरों के तीर्थ से संयुक्त उसके रत्निमात्र दान देने से पितर लोग सतुष्टि लाभ करते हैं | ३७-३८० मूल के समीप में नीचे वर्ण की, पत्थर आदि के टुकड़ों से रहित सावाँ, और नीवार - ये दो वस्तुएं भी पितृकार्य में दुष्प्राय कही गई हैं। पूर्वकाल में इसकी कथा इस प्रकार कही जाती है । प्रजापति के केश आकाशमार्ग से पृथ्वी पर जो गिरे वे काशी के रूप में परिणत हुए । यही कारण है कि श्राद्धादि कार्यो मे काश सर्वदा परम पवित्र मानी गई है । विभव को इच्छा करनेवाले व्यक्ति उन पर पिण्डदान करे । ३९ ४१ । पिण्डदान करने से प्रजा ( सन्तति ) की पुष्टि, शरीर की कान्ति, यश, बुद्धि, शोभा, आदि की वृद्धि होती है, पाप रहित होने से शरीर अत्यन्त मनोहर हो जाता है । श्राद्धकर्म में दक्षिणाभिमुख होकर केवल एक वार पिण्डदान के लिए कुशों की पृथ्वी पर विछाये, पूर्व दक्षिण की ओर अग्रभाग करके उस विधि को सम्पन्न करे, जो बतलायी जायगी |४२-४३ | बुद्धिमान् पुरुष कभी दोन, क्रुद्ध अथवा अन्यमनस्क होकर १. कुश की तरह एक तृण | इसका पुष्प श्वेत वर्ण का होता है ।