पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६९८

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चतुःसप्ततितमोऽध्यायः मन्वादीनां सुरेशानां सूर्याचन्द्रमसोस्तथा । तान्नमस्कृत्य सर्वान्वं पितृकुशलदायकान् नक्षत्राणां चरादीनां पितॄनथ पितामहान् | द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलिः देवर्षीणां जनयित व सर्वलोकनमस्कृतान् | अभयस्य सदा दातृन्नमस्येऽहं कृत /ञ्जलिः प्रजापतेः कश्यपाय सोमाय वरुणाय च | योगयोगेश्वरेभ्यश्च नमस्यामि कृताञ्जलिः पितृगणेभ्यः सप्तभ्यो नमो लोकेषु सप्तत्तु । स्वयंभुवे नमश्चैव ब्रह्मणे योगचक्षुषे एतदुक्तं ससप्तर्षिब्रह्मषिगणपूजितम् । पवित्रं परमं ह्येतच्छ्रीमद्रक्षोविनाशनम् अनेन विधिना युक्तस्त्रीन्वरांल्लभते नरः । अन्ननायुः सुतांश्चैव ददते पितरो सुवि भक्त्या परसया युक्तःअधानो जितेन्द्रियः | सप्ताचिषं जपेद्यस्तु नित्यमेव समाहितः ॥ सप्तद्वीप समुद्रायां पृथिव्यामेराभवेत् यत्किचित्पच्यते गेहे भक्ष्यं वा भोज्यमेव च । अनिवेद्य न भोक्तव्वं तस्मिन्नायतने सदा ६७७ ॥२३ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० ॥३१ कृताञ्जलिः । प्रजापतेः कश्यपाय सोमाय वरुणाय च, योगयोगेश्वरेभ्यश्च नमस्यामि कृताञ्जलिः | पितृगणेभ्यः सप्तभ्यो नमो लोकेषु सप्तमु | स्वयंभुवे नमश्चैव ब्रह्मणे योगचक्षुषे ।" अमूर्त समूतं सभी परमतेजस्वी योगनेत्र, ध्यान परायण पितरों को मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ, इन्द्र प्रभृति देवगप्प, भृगु कश्यप प्रभृति ऋषियों के जनविता (पिता) पितरों एवं सप्तर्षियों को नमस्कार करता हूँ, जो सभी मनोरथों के पूर्ण करनेवाले हैं | मनु प्रभृति सुरेशों एवं सूर्य चन्द्रमा को मङ्गल प्रदान करनेवाले समस्त पितरों को नमस्कार करके नक्षत्रों, समस्त चराचर पदार्थों एवं आकाश तथा पृथ्वी के जनयिता पितामह पितरो को अंजलि बाँधकर नमस्कार करता हूँ | सपूर्ण लोकों के नमस्करणीय देवताओं तथा ऋषियो के जनयिता, सर्वदा अभय प्रदान करनेवाले पितरों को हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ । प्रजापति, कश्यप, चन्द्रमा वरुण तथा योग योगेश्वर पितरों को हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ | सातों लोकों में निवास करनेवाले पितरों के सातो गणों को, योगनेत्र स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा को हमारा नमस्कार है ।" सातो ऋषियों एवं ब्रह्मपियों द्वारा पूजित परम पवित्र, श्री सम्पन्न, राक्षसों के विनाशक इस स्तोत्र को आप लोगों को सुना चुका १२१-२८। इस उपर्युक्त विधि समेत श्राद्ध करनेवाला व्यक्ति तीन पदार्थों का वरदान प्राप्त करता है, अन्न दीर्घायु एव पुत्र —— इन तींन वरदानो को पृथ्वीतल पर निवास करनेवालों को पितरगण प्रदान करते है । जो व्यक्ति परमभक्ति एवं श्रद्धा समेत जितेन्द्रिय एवं समाहित चित्त होकर इस सप्ताचिष नामक स्तोत्र का नित्य पाठ करता है, वह सातों द्वीपो एवं समुद्रों समेत समस्त पृथ्वी मण्डल का एकच्छत्र राजा होता है। अपने गृह में मनुष्य भक्ष्य भोज्य जो भी पदार्थ पकाता है, उसे पितरों को विना निवेदित किये कभी न खाना चाहिये । अव इसके उपरान्त मैं