पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६९९

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६७८ वायुपुराणम् क्रमशः कीर्तयिष्यामि वलिपात्राण्यतः परम् | येषु यच्च फलं प्रोक्तं तन्मे निगदतः शृणु इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥७४।। थपञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥३२ कल्पः बृहस्पतिरुवाच पालाशं ब्रह्मवर्चस्यमश्वत्थे राज्यभावना | सर्वभूताधिपत्यं च प्लक्षे निन्ययुदाहृतम् ॥१ ( x पुष्टिकामं च न्यग्रोधं बुद्धि प्रज्ञां धृति स्मृतिम् । रक्षोघ्नं च यशस्यं च काश्मयं पात्रमुच्यते ||२ कर्म के उयोगी पात्रों के विषय में वर्णन करूंगा, जिन-जिन पात्रों में वलिकर्म करने से जो-जो फल प्राप्त होते हैं, उन्हें बतला रहा हूँ, सुनिये |२६-३२॥ श्रीवायुमहापुराण में श्राद्धकल्पनामक चौहत्तरवाँ अध्याय समाप्त ॥७४ अध्याय ७५ श्राद्धकल्प वहस्पति बोले- पलाश के पत्तों से बने हुए पात्र में वलिकर्म करने से ब्राह्मण तेज की प्राप्ति होती है, अश्वत्थ (पोपल) के पत्तों से बने हुए पात्र में राज्य को भावना की जाती है, इसी प्रकार प्लक्ष (पाकड़) के पत्तों से बने पात्र में सभी जीवो का आधिपत्य प्राप्त होना बतलाया जाता है । यह सर्वदा का नियम है | पुष्टि, बुद्धि प्रज्ञा एवं स्मरणशक्ति की कामना से वरगद के पत्तों के पात्र में बलिकर्म करना चाहिये । काश्मीरी (खम्भारी) के पत्तों से बने हुए पात्र राक्षसों के विनाशक, एवं यशोवर्द्धक कहे गये हैं |१-२॥ मघूक (महुए) 1 X धनुश्चिह्नान्तर्गत ग्रन्थो ङ. पुस्तकेषु नास्ति |