पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६९६

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चतुःसप्ततितमोऽध्यायः श्राद्धकर्मण्ययं श्रेष्ठ विधिर्बाह्यः सनातनः । आयु: कीर्तिः प्रजाश्चैव प्रज्ञासंततिवर्धनः दिशि दक्षिणपूर्वस्यां विदिक्स्थानं विशेषतः । सर्वतोऽरत्निमात्रं तु चतुरस्त्रं सुसंहितम् वक्ष्यामि विधिवत्स्थानं पितॄणामनुशासनात् । धान्यमारोग्यमायुष्यं बलवर्णविवर्धनम् तत्र गर्तास्त्रयः कार्यास्त्रयो दण्डाच खादिराः | रत्निमात्रास्तु ते कार्या रजतेन विभूषिताः ॥ ते वितस्त्यायताः कार्याः सर्वतचतुरङ्गलाः 1 प्राग्दक्षिणमुखान्भूमौ स्थितानसुषिरांस्तथा । अद्भिः पवित्रपूताभिः प्लावयेत्सततं शुचिः पयसा ह्यजगव्येन शोधनं वाभिरेव तु । तर्पणात्सततं ह्येवं तृप्तिर्भवति शाश्वती इह चामुत्र च श्रीमान्सर्वकर्मसमन्वितः । एवं त्रिषवणस्नातो योऽर्चयेत पितृन्सदा ॥ यत्नेन विधिवत्सम्यगश्वमेधफलं लभेत् तत्स्थापयेदमावास्यां(? )गर्ते भूचतुरङ्गुले | त्रिः सप्तसंज्ञास्ते यज्ञास्त्रैलोक्यं धार्यते तु वै ६७५ ॥६ ॥७ 115 १. कनिष्ठिका अंगुली फैलाकर केहुनी तक की लम्बाई । २. मुट्टी बँधे हुये हाथ का परिमाण | HIE ॥१० ॥१२ ॥१३ कही गई हैं । श्राद्ध कर्म में यह सर्वश्रेष्ठ विधि सनातन से प्रचलित है - यह बाह्य नियम है | इन उपर्युक्त वस्तुओं के द्वारा विधिपूर्वक किया गया श्राद्धविधान श्राद्धकर्ता को आयु, कीर्ति प्रजा, बुद्धि, संतति आदि सब कुछ बढ़ानेवाला है; दक्षिण और पूर्व की दिशा में, विशेषतथा विदिक (कोण) में श्राद्धकर्म का विधान है। सर्वत्र अरनि मात्र परिमाण का, चौकोर सुन्दर स्थान होना चाहिये । पितरी के कार्य में जो आदेश शास्त्रों के है, उनके अनुसार स्थान के विषय मे विधिवत् कह रहा हूँ, जो घन देनेवाला आरोग्य साधक, दीर्घायु प्रदाता तथा बल और वर्ण को वृद्धि करनेवाला है |५-८तिरों के पर्युक्त श्राद्धस्थल में तीन गढ़े बनाने चाहिये, जो परिमाण में रलिमात्र लम्बे और चाँदी से विभूषित हों, इसके अतिरिक्त खदिर के डंडे भी होने चाहिये, जो वित्ते भर लम्बे हों उनके चारों ओर चार अंगुल मान के वेष्ठन बने हों। पूर्व और दक्षिण के मुख भाग की ओर से पृथ्वी पर रखे गये, छिद्र रहित, उन डण्डो को परमपवित्र जल से नहलाये |६-१०। बकरी के अथवा गाय के दूध अथवा जल से उसको पुनः शुद्ध करे, इस प्रकार विधिपूर्वक तर्पण करने से सार्वकालिक तृप्ति होती है ॥११॥ इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्धकर्म का अनुष्ठान करनेवाला प्राणी ऐहिक-पारलौकिक विभूतियों से सुसमृद्ध तथा सर्व-कर्म-समन्वित होता है। इसी प्रकार तीन बार सवन स्नान करके जो विधिपूर्वक मंत्रादि का उच्चारण कर भलीभाँति सर्वदा पितरों की पूजा करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है | १२ | अमावास्या तिथि को पृथ्वीतल पर चार अंगुल के गढ़े मे श्राद्धोपयोगी वस्तुओं को स्थापना करनी चाहिये । ये त्रिःसप्तयज्ञ के