पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६९१

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६७० वायुपुराणम् कृष्णं गौरं प्रभुं शंभुं तथा भूरिश्रुतं च वै । कन्या कीर्तिमतीं चैव योगिनों योगमातरम् ब्रह्मदत्तस्य जननी महिषी त्वणुहस्य तु । एतानुत्पाद्य धर्मात्मा पुत्रान्योगमवाप्य च महायोगश्चैव अपरावर्तिनीं सतिम् | आदित्य किरणोपेतं त्वपुनर्भावसास्थितः सर्वव्यापी विनिर्मुक्तो भविष्यति महामुनिः | असूर्तिमन्तः पितरो धर्ममूर्तिधरास्तु ये त्रय एते गणास्तेषां चत्वारोऽन्ये निबोधत | यान्वक्ष्यामि द्विजश्रेष्ठा मूर्तिमन्तो महाप्रभाः उत्पन्नास्ते स्वधायास्तु कन्या ह्यग्नेः कवेः सुताः । पितरो देवलोकेषु ज्योतिर्भासिषु भास्वराः सर्वकामसमृद्धेषु द्विजास्तान्भावयन्त्युत । एतेषां मानसी कन्या गौर्नाम दिवि विश्रुता दत्ता सनत्कुमारेण शुक्रस्य महिषो प्रिया | एकत्रिंशच्च विख्याता भृगूणां कीर्तिवर्धनाः मरीचिगर्भास्त लोकाः समावृत्य दिवि श्रुताः । एते हाङ्गिरसः पुत्राः साध्यैः सह विवधिताः उपहूताः मृतास्ते तु पितरो भास्वरा दिवि | तान्क्षत्रियगणांदृष्ट्वा भावयन्ति फलाथिनः ॥३० ॥ ३१ ॥३२ ॥३३ ॥३४ ॥३५ ॥३७ ॥३८ ॥३६ की मानसी कन्या उस पीवरी मे सुविख्यात योगाचार्य कृष्ण, गौर, प्रभु, शंभु तथा भूरिश्रुत नामक पुत्री को तथा परम योगिनी योगमाता कीर्तिमती नामक कन्या को वे उत्पन्न करेंगे। वह कीर्तिमती अणुह की पत्नी और ब्रह्मदत्त की माता होगी। धर्मात्मा शुक्र अपने महान् तप एवं योग से इन पुत्रो की उत्पत्ति करने के बाद उस परम गति को प्राप्त होगे, जिसको प्राप्त कर पुनरावर्तन नही होता । सूर्य की किरणों के समान परम तेज को प्राप्त होकर वे पुनर्जन्म को न प्राप्त होगे । इस प्रकार वे महामुनि समस्त चराचर जगत् में व्याप्त होकर सांसारिक बन्धनो से विनिर्मुक्त हो जायेंगे | धर्म मूर्ति धारण करनेवाले जो पितरगण है वे है इनके तीन गण है | हे द्विजश्रेष्ठ, अब में उन अन्य चार पितरों के बारे में बतला रहा हूँ, जो परम कान्ति- मान स्वरूपधारी है, उन्हे सुनिये | २९-३४ | वे पितर गण कवि अग्नि की पुत्री स्वधा से उत्पन्न हुये है, और ज्योतिर्मास नामक देवलोको मे उनका निवास स्थान है, स्वयमेव ये पितरगण चहुत तेजोमय है । सभी अभिला- पाओ को पूर्ण करनेवाले उन ज्योतिर्मय लोको में विराजमान पितरो को द्विजगण इसी प्रकार से भावना करते है । इनकी मानसी क्न्या गौ है, जो स्वर्ग लोक मे विख्यात है। सनत्कुमार ने गो को शुक्र को सौपा था जहाँ पर वह शुक्र की प्रिया स्त्री हुई । भृगुवंश में उत्पन्न होनेवाले परम यशस्वी इकतीस पितरगण बहुत विख्यात हुये । उनके लोक मरीचिगर्भ के नाम से विख्यात हुये, जो समस्त स्वर्ग लोक को आवृत करके स्थित है, ऐसा उनके विपय मे सुना गया है |३५ - ३७३। ये अंगिरा के पुत्र कहे जानेवाले पितरगण साध्यो के साथ वृद्धि को प्राप्त हुये । स्वर्ग लोक मे परम तेजोमय उपहूत नामक पितरगण विराजमान हैं उन क्षत्रियो के पितरगणो की शुभ फल की १. आनन्दाश्रम की प्रति मे जो पाठ है, उससे यह अर्थ भिन्न है ।