पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६९०

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त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ६६६ ॥१८ ॥१६ ॥२१ ॥२२ महाभिषस्य पुत्रौ द्वौ शंतनोः कीर्तिवर्धनौ । विचित्रवीर्यं धर्मज्ञं त्वमेवोत्यादयिष्यसि वित्राङ्गदं च राजानं तेजोबलगुणान्वितम् । एतानुत्पाद्य पुत्रांस्त्वं पुनर्लोकानवाप्स्यसि व्यतिमातृणां त्वं प्राप्स्यसे जन्म कुत्सितम् | तस्यैव राज्ञस्त्वं कन्या अद्रिकायां भविष्यति ॥२० कन्या भूत्वा ततश्च त्वभिमाँल्लोकानवाप्स्यसि । एवमुक्ता तु दासेयो जाता सत्यवती तु सा अद्रिकायां सुता मत्स्यां तुता जाता ह्यमावतोः | अद्विकामत्स्यता गङ्गायलुनसंगमे तस्य राम्रो हि सा कन्या राज्ञो वीर्ये सदैव हि । विरजा नाम ते लोका दिवि रोचन्ति ते गणाः ||२३ अग्निष्वात्ताः स्मृतात्तत्र पितरो भास्वरप्रभाः । तान्दानवगणा यक्षा रक्षोगत्वर्वक नराः भूतसर्पपिशाचाच भावयन्ति फलायिनः । एते पुत्राः समाख्याताः पुलहत्य प्रजापतेः त्र्य एते गणाः प्रोक्ता धर्ममूर्तिधराः शुभः । एतेषां मानसी कन्या पोवरी नाम विश्रुता योगिनो योगपत्नी च योगमाता तथैव च । भविता द्वापरं प्राप्य अष्टाविशं तदैव तु पराशरकुलोद्भूतः शुको नाम महातपाः । श्रीनान्योगी महायोगी योगस्तस्माद्विजोत्तमाः व्यासादरण्यां संभूतो विधूम इव पावकः । स तस्यां पितृकन्यायां योगावार्थान्परिश्रुतान् ।।२४ ।।२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ और परम तेजस्त्री, बलवान, गुणशील राजा चित्रांगद इन दो पुत्रो को तुम्हीं उत्पन्न करोगी। इन पुत्रों को उत्पन्न करने के बाद तुम पुनः इन लोकों को प्राप्त करोगी। पितरों के साथ पति भावना करके तुमने बहुत वड़ा व्यतिक्रम कर दिया है और उसी से ऐसी कुत्सित योनि में जन्म प्राप्त करना पड़ेगा। किन्तु उस योनि में भी तुम अद्रिका के गर्भ मे उसी राजा के वीर्य से उत्पन्न होगी |१८-२०। उसी कन्या होने के बाद तू इन लोकों को निश्चय ही प्राप्त करोगी। पितरों के ऐसा कहने पर वह दासो की पुत्री सत्यवती के रूप में उत्पन्न हुई । अमावसु के सयोग से अद्रिका नामक मछली की पुत्री के रूप में उसका जन्म हुआ, गङ्गा यमुना के संगम पर अद्रिका मछली के पेट से उसकी उत्पत्ति हुई, वह उसी राजा अमावसु के वीर्य से उत्पन्न हुई थी अतः उसकी कन्या थो । स्वर्ग मे विरज नाम पितरों से वे लोक शोभायमान है |२१-२३१ वहाँ विद्यमान रहने वाले पितरगण सूर्य के समान कान्तिमान हैं, वे 'अनिष्वात्त' नाम से विख्यात है। उन पितर गणो की समस्त दानव यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, किन्नर, भूत, सर्प एवं पिशाचो के गणउत्तम फल की प्राप्ति की इच्छा से पूजा करते है । पुलह प्रजापति के इन पुत्रों का वर्णन किया जा चुका । धर्ममूर्ति इन पितरों के तीन गण कहे गये है | इनकी मानसी कन्या पीवरी नाम से विख्यात है, वह पीचरी योगिनी, योगपत्नी एवं योगमाता के रूप मे भी विख्यात थी । हे द्विजवर्य वृन्द ! अट्ठाईसवें द्वापर युग के आने पर पराशर के कुल में शुक नामक महान् तपस्वी श्रीमान्, योगी, एवं महान् योगाभ्यासी की उत्पत्ति होगी, उन्हीं से पृथ्वी पर योग का विस्तार होगा |२४-२८१ शुक्र व्यास के संयोग से अरणी में धूम रहित अग्नि के समान तेजोमय रूप में उत्पन्न होंगे और पितरों