पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६८८

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त्रिसप्ततितमोऽध्यायः त्रिसप्ततितमोऽध्यायः श्राद्धकल्पः ["बृहस्पतिरुवाच]] लोकाः सोमपदा नाम सारोचेर्यन्त्र वै सुताः । पितरो दिवि वर्तन्ते देवास्तान्भावयन्ति वै अग्निष्वात्ता इति ख्याताः सर्व एवामितौजसः । एतेषां मानसी कन्या अच्छोदा नाम निम्नगा अच्छोदं नाम तद्दिव्यं सरो यस्याः समुच्छ्रितम् | अद्रिकाप्सरसा युक्तं विमानधिष्ठितं दिवि अमूर्तिमतच पितरददृशे सा तु विस्मिता | पोडिताऽनेन दुःखेन बभूव वरवणिमी सा दृष्ट्वा पितरं वव्रे वसूनामन्तरिक्षगम् । अनावसुरिंति ख्यातमायोः पुत्रं यशस्विनम् सा तेन व्यभिचारेण सनसः कामचारिणी । पतिकामा तदा सा च योगभ्रष्टा पपात ह] सा त्वपश्यद्विमानानि पतन्ती सा दिवश्च्युता । त्रसरेणुप्रमाणानि तेष्वपश्यच्च तान्पितॄन्

६६७ ॥१ ॥२ ॥४ ॥५ ॥६ ॥७ अध्याय ७३ श्राद्धकल्प वृहस्पति बोले- स्वर्ग में सोमपद नामक लोक है, जहां मरीचि के पुत्र पितर गण वर्तमान हैं, देवगण वहां उनकी पूजा करते है। वे पितरगण अग्निष्वात्त नाम से विख्यात है, और सब के सब अमित तेजस्वी है इन पितरो की मानसी कन्या अच्छोदा नामक नदी है। जिससे निकला हुआ अच्छोद नामक दिव्य सरोवर भी वहाँ विराजमान हैं। स्वर्ग लोक में एक बार उसी सरोवर के पास अद्रिका नामक अप्सरा के साथ आकाश में देवताओं के विमान सुशोभित हो रहे थे |१-३॥ वहाँ मूर्तिरहित पितरों को देखकर वह परम विस्मित हुई, और इसी दुःख से वह सुन्दरी बहुत काम पीड़ित हुई । आकाश में विचरण करते हुए वसुओं के पिता आयु के परम यशस्वी पुत्र अमावसु नामक पितर को देखकर उसने मानसिक वरण किया। उस मानसिक व्यभिचार के कारण, पति के रूप में अमावसु को वरण करने की इच्छुक वह कामचारिणी योगभ्रष्ट हो गई और स्वर्ग से पतित हो गई ॥४-६ स्वर्ग लोक से पतित होकर गिरते समय उसने उन देव विमानों को देखा और वहाँ त्रसरेणु के समान परम सूक्ष्म उन पितरों को देखा। वे परम सूक्ष्म थे और ज्वलन्त अग्नि के समान धनुश्चिह्नान्तर्गत ग्रन्थः क. ग घ ङ. पुस्तकेषु नास्ति ।