पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६८७

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६६६ वायुपुराणम् मयूरः कुक्कुटश्चैव पताका चैव वायुना | यस्य दत्ता सरस्वत्या महावीणा महास्वना ॥ अजः स्वयंभुवा दत्तो मेषो दत्तश्च शंभुना मायाविहरणे विप्रा गिरौ कौञ्चे निपातिते । तारके चासुरवरे समुदीर्णे निपातिते सेन्द्रोपेन्द्रैर्महाभागैर्देवैरग्निसुतः प्रभुः | सैनापत्येन दैत्यारिरभिषिक्तः प्रतापवान् देवसेनापतिस्त्वेवं पठ्यते नरनायक | देवारिस्कन्दनः स्कन्दः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः प्रमर्थविविधैर्देवैस्तथा भूतगणैरपि । मातृभिविविधाभिश्च विनायकगणैस्तथा इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते सेनान्युत्पत्तिकथनं नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥ ॥४६ ३।४७ ॥४८ ।।४६ ॥५० की सृष्टि की। घायु ने पताका दो, सरस्वती ने उसे महान् शब्द करनेवाली एक बहुत बड़ी वीणा अर्पित की, स्वयभ्भ् ब्रह्मा ने एक अज (बकरा) दिया, शंकर ने एक मेढ़ा दिया | हिजवाद ! क्रौञ्चगिरि पर असुरश्रेष्ठ तारकासुर की समस्त माया का उन्मूलनकर अग्नि कुमार ने जब उसका समस्त सेना के साथ संहार कर दिया, उस समय महाभाग्यशाली, इन्द्र, उपेन्द्र (विष्णु) प्रभृति देवताओं ने दैत्यों के इस प्रचल प्रतापी शत्रू को सेनापति के पद तर अभिषिक्त किया । और उस समय विविध देवताओं, भूतों शिव के गणों, मातृकाओं तथा विनायकों के समूहों ने इसका नरनायक, देव सेनापति, देवारिस्कन्दन ( देवताओ के शत्रु को व्यथित करने वाला) स्कन्द, सर्वलोकेश्वर एवं प्रभु आदि नामो से स्तवन किया ४५-५० ॥ श्री वायुमहापुराण में सेनान्युत्पत्ति कथन मामक बहत्तरहवाँ अध्याय समाप्त |॥७२॥