पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६८१

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६६० वायुपुराणम् सिद्धा हि विप्ररूपेण चरन्ति पृथिवीमिमाम् । तस्मादतिथिमायान्तमभिगच्छेत्कृताञ्जलिः पूजयेच्चार्घ्यपाद्येन वेश्मना भोजनेन च । उवीं सागरपर्यन्तां देवा योगेश्वराः सदा ॥ नावारूपैश्चरन्त्येते प्रजा धर्मेण पालयन् ११७४ ॥७५ ॥७६ ॥७७ ॥७८ ॥७६ तस्माद्द्द्याच्च वं दानं विप्रायातिथये नरः | प्रदानानि प्रवक्ष्यामि फलं चैपां तथैव च अश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च । पुण्डरीकसहस्रेण योविप्नावसथो वरम् आद्य एष गणः प्रोक्तः पितॄणाम मितौजसाम् । भावयन्सप्त कालान्चै स्थित एप गणः सदा अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि सर्वान्पितृगणान्पुनः | संतति संस्थिति चैव भावनां च यथाक्रमम् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते उपोद्घातपादे श्राद्धप्रक्रियारम्भो नामकसप्ततितमोऽव्यायः ॥७१।। धारण कर इस पृथ्वी पर भ्रमण किया करते हैं अतः किसी अतिथि के आ जाने पर मनुष्य को चाहिये कि उसको अगवानी के लिये हाथ जोड़कर जाय, अर्ध्य पद्यादि से उसकी पूजा करें, रहने के लिये सुन्दर स्थान दे और भोजन को व्यवस्था करे । समुद्र पर्यन्त दिस्तृत इस भूमण्डल पर ये योगेश्वर देवगण विविध रूप धारण कर धर्म पूर्वक प्रजावर्ग की पालना करते हुए सवंदा विचरण किया करते हैं, अतः मनुष्य को चाहिये कि अपने द्वार पर आये हुए अतिथि ब्राह्मण को विधिपूर्वक दानादि दे। आगे चलकर में उन विविध दानादिकों को तथा उनके फलो को बतला रहा हूँ १७२-७६। सहन अश्वमेघ, सो राजसूय सहस्र पुण्डरीक नामक यज्ञों से बढ़कर फल योगियों के मध्य में निवास स्थान बनाने से प्राप्त होता है। उन अमित तेजस्वी पितरो के साथ गणों में से यह प्रथम गण (समूह) कहा जा चुका, पितरों का यह गण सभी कालों की भावना करते हुए सर्वदा अवस्थित है । अब इसके उपरान्त मै पुनः समस्त पितरों का वर्णन कर रहा हूँ, उनको सन्तति, अवस्थिति एवं भावनाओं विषय में भी क्रमशः कह रहा हूँ १७७-७६। श्री वायुमहापुराण मे उपोद्घात पाद में श्राद्धप्रक्रियारम्भ नामक एकहत्तरवां अध्याय समाप्त ॥७१॥