पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६७९

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६५८ वायुपुराणम् आदिदेवा इति ख्याता महासत्त्वा महौजसः । सर्वकामप्रदाः पूज्या देवदानवमानवः तेषां सप्त समाख्याता गणास्त्रैलोक्यपूजिताः । अमूर्तयस्त्रयस्तेषां चत्वारस्तु सुमूर्तयः उपरिष्टाञ्त्रयस्तेषां वर्तन्ते भावमूर्तयः । तेषामधस्ताद्वर्तन्ते चत्वारः सूक्ष्ममूर्तयः ततो देवास्ततो भूमिरेषा लोकपरम्परा | लोकं वर्तन्ति ते ह्यस्मिंस्तेभ्यः पर्जन्यसंभवः ॥ वृष्टिर्भवति तैर्वृ ष्ट्या लोकानां संभवः पुनः ॥५७ आप्याययन्ति ते यस्मात्सोमं चान्नं च योगतः । ऊचुस्तान्वै पितृस्तस्माल्लोकानां लोकसत्तमाः ॥५८ मनोजवाः स्वधाभक्षाः सर्वकामपरिच्छदाः । लोभमोहभयापेता निश्चिताः शोकवर्जताः ॥५६ ॥६१ एते योगं परित्यज्य प्राप्ता लोकान्सुदर्शनान् । दिव्याः पुण्या महात्मानो विपाप्मानो भवन्त्युत ॥ ६० ततो युगसहस्रान्ते जायन्ते ब्रह्मवादिनः । प्रतिलभ्य पुनर्योगं मोक्षं गच्छन्त्यमूर्तयः व्यक्ताव्यक्तं परित्यज्य महायोगबलेन वा । नश्यन्त्युत्केव गगने क्षीणविद्युत्प्रभेव च उत्सृज्य देहजातानि महायोबलेन च । निराख्योपाख्यतां यान्ति सरितः सागरे यथा ॥६२ ॥६३ ॥५४ ॥५५ ॥५६ देवगण आदि देव के नाम से विख्यात हैं ?, महान् पराक्रम शील एवं परम तेजस्वी हैं, देवताओं, दानवो एवं मनुष्यों - सब के पूज्य तथा सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले है | उन त्रैलोक्य पूजित देवताओं के सात गण विख्यात हैं, जिनमें तीन गण निराक र तथा चार सुन्दर आकृतिवाले है | वे भाव मूर्ति (निराकार) तीन देवगण सब से ऊपर निवास करते हैं, उनके नीचे वे चार गण निवाम करते हैं, जो सूक्ष्म मूर्तियों वाले हैं। उनके वाद सामान्य देवताओ का निवास स्थल है. उसके नीचे पृथ्वी की स्थिति है, यही लोको की स्थिति की परम्परा है । वे देव गण इसी लोक मे निवास करने वाले हैं, उन्ही से बादलो की उत्पत्ति होती है । उन्ही बादलों से वृष्टि होती है, वृष्टि से सभी लोको (वस्तुओ) की पुनः उत्पत्ति होती है १५३-५७ । यतः वे (पितर) लोग अपने योगबल से सोम एवं अन्न दोनों को सन्तुष्ट एवं प्रफुल्लित रखते हैं, अतः श्रेष्ठजन उन्हें समस्त लोको का पितर कहते है । ये पितर गण मन के समान वेगशाली स्वधा का भक्षण करने वाले, सभी इच्छाओ एव सुविधाओं को देने वाले, लोभ, मोह तथा भय से विमुक्त एवं निश्चय ही शोक विहीन है ५८५६ ये योगाभ्यास को छोड़कर सुन्दर दिखाई पड़ने वाले लोको को प्राप्त हुए हैं । ये दिव्यगुण युक्त, पुण्यशाली, महात्मा तथा निष्पाप हैं एक सहस्र युग के उपरान्त ये ब्रह्मवादी हो जाते है, और पुनः योग की प्राप्ति कर शरीर को छोड़ मोह के अधि- कारी होते हैं महान् योगबल का आश्रय लेकर वे व्यक्त एवं अव्यक्त एवं क्षीण विद्युत् प्रभा की तरह विनाश को प्राप्त होते है, महान् योगबल से देह प्रभृति ऐहिक उपादानों को छोड़कर वे समुद्र में मिलने वाली सरिताओं की भाँति आख्या (संज्ञा नाम) रहित हो जाते हैं । वे शरीर को छोड़कर आकाश में उल्का