पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६७६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

एकसप्ततितमोऽध्यायः उक्तं च पितरोऽस्माकमिति वै तनया स्वकाः । पितरस्ते भविष्यन्ति तेभ्योऽयं दोयतां वरः तेनैव वचसा पुत्रा ब्रह्मणः परमेष्ठिनः । पुत्राः पितृत्वमाजग्मुः पुत्रत्वं पितरः पुनः तस्मात्ते पितरः पुत्राः पितृत्वं तेषु तत्स्मृतम् । एवं स्मृत्वा पितृन्पुत्रान्पुत्राश्च पितरस्तथा ॥ व्याजहार पुनर्ब्रह्मा पितृनात्मविवृद्धये ।।२७ ॥२६ ॥३० यो ह्यनिष्ट्वा पितञ्श्राद्धे क्रियां कांचित्करिष्यति । राक्षसा दानवाश्चैव फलं प्राप्स्यन्ति तस्य तत् ॥ श्राद्धैराप्यायिताश्चैव पितरः सोममव्ययम् । आप्यायमाना युस्माभिर्वर्धयिष्यन्ति नित्यशः श्राद्धै राप्यायितः सोमो लोकानाप्याययिष्यति । कृत्स्नं सपर्वतवनं जङ्गमाजङ्गमैर्वृ तम् श्राद्धानि पुष्टिकामाच ये करिष्यन्ति मानवाः । तेभ्यः पुष्टि प्रजाश्चैव दास्यन्ति पितरः सदा ॥३१ श्राद्धे येभ्यः प्रदास्यन्ति त्रीन्पिण्डान्नामगोत्रतः । सर्वत्र वर्तमानास्ते पितरः प्रपितामहम् ॥ तेष्यामाण्याययिष्यन्ति श्राद्धदानेन वै प्रजाः एवमाज्ञा कृता पूर्व ब्रह्मणा षरमेष्ठिना । तेनैतत्सर्वथा सिद्धं दानमध्ययनं तपः ते तु ज्ञानप्रदातारः पितरो वो न संशयः । इत्येते पितरो देवा देवाश्च पितरः पुनः ॥ अन्योन्यपितरो ह्येते देवाश्च पितरश्च ह ६५५ ॥२५ ॥२६ ॥३२ ॥३३ ॥३४ से निकला है वह सब कुछ घटित होगा, कुछ भी अन्यथा न होगा । यतः तुम लोगों ने स्वयं अपने पुत्रों को अपना पिता कहा है, अतः वे तुम्हारे पिता हों - यही वर उन्हें दो |२४-२५| परमेष्ठी पितामह की उसी बात से वे देवपुत्र गण पितृकोटि में आ गये और उनके पितृगण पुत्र कोटि में आ गये | इसी कारण वश वे पितरगण पुत्र ( देवपुत्र ) कहे जाते हैं, और उनमें पुत्र होने पर भी पितृत्व कहा जाता है । इस प्रकार पितरों को पुत्र रूप में और पुत्रों को पितररूप में स्मरण कर पितामह ब्रह्मा ने अपने वंश की वृद्धि के लिये पुनः पितरों से कहा |२६-२७ श्राद्ध कर्म में जो पितरों की पूजा विना किये ही किसी अन्य क्रिया का अनुष्ठान करता है, उसकी उस क्रिया का फल राक्षस तथा दानवों को प्राप्त होता है । श्राद्धों द्वारा सन्तुष्ट किये गये पितरगण अव्यय सोम को सन्तुष्ट करते है | तुम लोगों से सन्तुष्ट प्राप्त कर वे सर्वदा तुम्हे बढ़ायेंगे | श्राद्धादि कर्मों में इस प्रकार पितरों द्वारा संतुष्ट किया गया सोम समस्त, पर्वत, वन, व चराचर जगत् सब को सन्तुष्ट करेगा । जो मनुष्य लोक के पोषण की दष्टि से श्रद्धादि करेगे, उन्हें पितरगण सर्वदा पुष्टि एवं सन्तति देगे । श्राद्धकर्म में अपने प्रपितामह तक नाम एवं गोत्र का उच्चारण कर जिन पितरों को कुछ दे दिया जायगा वे पितरगण उस अति सन्तुष्ट होकर देनेवाले की सन्ततियों को सन्तुष्ट रखेंगे |२८-३२। परमेष्ठी ब्रह्मा ने इस प्रकार की आज्ञा पूर्वकाल में दी है। उन्हीं पितरों की कृपा से दान, अध्ययन, तपस्या – सबसे सिद्धि प्राप्त होती है | इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वे पितरगण ही हम सब को ज्ञान प्रदान करनेवाले है । इस प्रकार वे श्राद्धदान