पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६६६

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सप्ततितमोsध्याय: घरप्रभृतयो देवा देवलस्य प्रजास्त्विमाः । चतुर्युगे त्वतिक्रान्ते मनोकादशे प्रजाः ॥ अथावशिष्टे तस्मिस्तु द्वापरे संप्रवर्तते मानसस्य च रिष्यन्तस्तस्य पुत्रो दमः किल । मानसस्तस्य दायादस्तृणविन्दुरिति श्रुतः त्रेतायुगमुखे राजा तृतीये संबभूव ह | तस्य कन्या त्विडिविला रूपेणाप्रतिमाऽभवत् ॥ पुलस्त्याय स राजपिस्तां कन्यां प्रत्यपादयत् ऋषिरिडिविलायां तु विश्रवाः समपद्यत । तस्य पत्न्यश्चतस्रस्तु पौलस्त्यकुलवर्धनाः बृहत्पते बृहत्कोतिर्देवाचार्यस्य कीर्तिता | कन्यां तस्योपयेमे स नाम्ना वै देववणिनीम् पुष्पोत्कटां च वाकां च सूते माल्यवतः स्थिते । कैकसों मालिनः कन्यां तासां तु शृणुत प्रजाः ज्येष्ठं वैश्रवणं तस्य सुटुवे देववणिनी | दिव्येन विधिना युक्तमार्षेणैव श्रुतेन च ॥ राक्षसेन च रूपेण आसुरेण बलेन च त्रिपादं सुमहाकायं स्थूलशोर्षं महातनुम् । अष्टदंष्ट्रं हरिच्छ्मश्रुं शङ्कुकर्णावलेहितम् ६४५ ॥२६ ॥३० ॥३१ ॥३२ ॥३३ ॥३४ ॥३५ ॥३६ 1 सन्ततियाँ हैं । "मनु' के ग्यारहवें चतुर्युग के व्यतीत हो जाने पर अर्थात् ग्यारहवार चारों युगों के व्यतीत हो जाने पर, जब द्वापर युग शेष रह जाता है, तब उसमें इन प्रजाओं (?) की सृष्टि हुई ” । २७ २६॥ मानस के पुत्र रिष्यन्त हुये और उनके पुत्र दम नाम से विख्यात हुये । उनके भी पुत्र मानस कहे गये, जो तृणविन्दु नाम से प्रसिद्ध हुये | तीसरे त्रेतायुग के प्रारम्भिक काल में वह राज्यपद पर प्रतिष्ठित था । उसकी कन्या इडिविला अपने सौन्दर्भ में अनुपम थी । राजर्षि ने अपनी उस कन्या को पुलस्त्य को समर्पित किया ।३०-३१। इडिविला मे ऋषि विश्रवा की उत्पत्ति हुई। उनकी चार पत्नियाँ थी जो पुलस्त्य वंश में उत्पन्न होनेवाले ऋषिओं की वंश वृद्धि करनेवाली हुई | देवाचार्य वृहस्पति की एक परम यशस्विनी कन्या थी, उसका नाम था देववणिनी । वृहस्पति की उस कन्या के साथ उसने (विश्रवा ने) विवाह किया माल्यवान् की पुष्पोत्कटा और बाका नामक कन्याओ के साथ भी उसने विवाह किया तथा मालो की कैकसी नामक कन्या को भी विवाहा | उन सबो में उत्पन्न होनेवाली प्रजाओं को सुनिये | सब से ज्येष्ठ वैश्रवण (कुवेर) को देत्रवणिनी ने उत्पन्न किया | ३२ - ३४३ | उसका विधान देवताओं का था, श्रुतिज्ञान ऋषियों का था, रूप राक्षसों का था, वल असुरो का था, तीन चरण थे, विशाल शरीर था, शिर बहुत बड़ा था, आठ दांत थे, दाढी हरे वर्ण की थी, कान खूंटे की तरह थे, लाल वर्ण था, एक बाहु छोटा ओर एक बहुत बड़ा था । देखने में ● १. यह अप्रासंगिक अंश प्रक्षिप्त जान पड़ता है, बंगला प्रति में इसका पाठ नही है। पर आनन्दश्रम की प्रति हो यतः हमारे सामने आदर्श रूप में थी, अतः शाब्दिक अनुवाद मात्र कर दिया गया; पर संगति नहीं बैठती।