पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६६२

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नवर्षाष्टितमोऽध्यायः धर्मार्थकाममोक्षाणां मानुषाः साधकास्तु वै । ततोऽधःश्रोतसस्ते वै उत्पद्यन्ते सुरासुराः जायन्ते कार्यसिद्धयर्थं मानुषेषु पुनः पुनः । इत्येव वंशप्रभवः प्रसंख्यातस्तपस्विनाम् सुराणामसुराणां च गन्धर्वाप्सरसां तथा । यक्षरक्षः पिशाचानां सुपर्णोरगपक्षिणाम् व्यालानां शिखिनां चैव ओषधीनां च सर्वशः । कृमिकीटपतङ्गानां क्षुद्राणां जलजाश्च ये || पशूनां ब्राह्मणानां च श्रीमतां पुण्यलक्षणः ६४१ ॥३५१ ॥३५२ ॥३५३ ॥३५४ ॥३५५ आयुष्यश्चैव धन्यश्च श्रोमान्हितसुखावहः । श्रोतव्यश्चैव सततं ग्राह्यश्चैवानसूयता इमं तु वंशं नियमेन यः पठेन्महात्मनां ब्राह्मणवैद्यसंसदि । अपत्यलाभं हि लभेत पुष्कलं श्रियं धनं प्रेत्य च शोभनां गतिम् ॥३५६ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते उपोद्घातपादे कश्यपीयप्रजासर्गो नाम नवषष्टितमोऽध्यायः ॥६६॥ फा० - ८१ गये ।३४६-३५०। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पदार्थों के साधक मनुष्य ही हैं। उनके इस लोक में (मर्त्यलोक ) सुर असुरगण कार्य सिद्धि के लिये बारम्बार निम्नश्रोत के रूप में उत्पन्न होते हैं । तपस्वियों के वंश में उत्पन्न होनेवाले देवताओं, असुरों, गन्धर्वो, अप्सराओं, यक्षों, राक्षसों, पिशाचों, पक्षियों, सर्पों, विहंगमो, व्यालों, शिखियों, सभी प्रकार की ओषधियों, कृमि, कीट-पतंगों, क्षुद्र जलजन्तुओ, पशुओं, ब्राह्मणों एवं श्रीमानों के पुण्यदायी लक्षण एवं वंश विस्तार को में बतला चुका । यही उनका वर्णन है। यह वर्णम आयु प्रदान करनेवाला, धन्य, श्री सम्पन्न, कल्याणदायी एवं सुख का साधन देनेवाला है, इसको सर्वदा निन्दा न करते हुये सुनना तथा धारण करना चाहिये । इस सृष्टि विस्तार के वर्णन का जो मनुष्य नियमपूर्वक, महात्माओं, पण्डितों एवं ब्राह्मणों की सभा में पाठ करता है, वह सन्तति लाभ करता है, प्रचुर धन सम्पत्ति को प्राप्त करता है तथा इस लोक के बाद परलोक में सुन्दर गति प्राप्त करता है |३५१-३५६॥ श्रीवायुमहापुराण में कश्यपोयप्रजासर्ग नामक उनहत्तरवाँ अध्याय समाप्त ॥६६॥