पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६१८

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सप्तर्षाष्टितमोऽध्यायः पृथिव्यां प्रथमस्कन्धो द्वितीयश्चैव भास्करे | सोमे तृतीयो विज्ञेयश्चतुर्थो ज्योतिषां गणे ग्रहेषु पञ्चमश्चैव षष्ठः सप्तवमण्डले | ध्रुवे तु सप्तमश्चैव वातस्कन्धः परस्तु सः तानेते विचरन्त्वद्य काले काले ममाssत्मजाः । वातस्कन्धानिमान्भूत्वा चरन्तु मम पुत्रकाः पृथिव्यां प्रथमस्कन्ध आमेधेभ्यो य आवहः । चरन्तु मम पुत्रास्ते सप्तमे प्रथमे गणे द्वितीयश्चापि मेध्येभ्य आसूर्यावहस्तु यः | वातस्कन्धं द्वितीयं तु द्वितीयश्वरतां गणः सूर्योर्ध्वं तु ततः सोमादुद्वहो यस्तु वै स्मृतः । वातस्कन्धं तु तं प्राहुस्तृतीयश्चरतां गणः ( *सोमादूर्ध्वं तथर्क्षेभ्यश्चतुर्थः सुवहस्तु यः । चतुर्थो मम पुत्राणां गणस्तु चरतां विभो यक्षेभ्यश्च तथैवोर्ध्वमानहाद्विवस्तु यः | पश्चनं पश्चमः सौम्यः स्कन्धस्तु चरतां गण:) ऊर्ध्वं ग्रहादृषिभ्यस्तु षष्ठो यो वै पराहतः । चरन्तु मम पुत्रास्तु तत्र षष्ठे गणे तु थे सप्तर्षयस्तथैवोर्ध्वमाप्रदात्सप्तमस्तु यः । वातस्कन्धः परिवहस्तत्र तिष्ठन्तु मे सुताः एतत्सर्वं चरन्त्येते काले काले ममात्मजाः । त्वत्कृतेन च नाम्ना वै भवन्तु मरुतस्त्विमे yer ॥१११ ॥११२ ॥११३ ॥११४ ।।११५ ॥११६ ॥११७ ॥११८ ॥११६ ॥१२० ॥ १२१ मण्डल में हो तीसरा चन्द्रमा में और चौथा ज्योतिगणों में हो पाँचव स्कन्ध ग्रहों में और छठवाँ सप्तर्षि मण्डल में हो, सब से आखिरी स्कन्ध जो सतव होगा वह ध्रुव मण्डल में होगा। इस प्रकार उन मण्डलो में ये मेरे पुत्रगण समय-समय पर विचरण करते रहें ।११०-११३ । पृथ्वी तल से लेकर मेघमण्डल पर्यन्त प्रथम स्कन्ध जो आवह नामक है उसमें मेरे सातों गणों में से प्रथम गण के सात पुत्र विचरण करें। द्वितीय प्रवह नामक स्कन्ध जो कि मेघ मण्डल से लेकर सूर्य मण्डल पर्यन्त है, उसमें हमारे पुत्रों का द्वितीय गण विचरण करे । सूर्य मण्डल से ऊपर चन्द्रमण्डल तक जो उद्वह नामक वात स्कन्ध कहा गया है उसमे हमारे पुत्रो का तीसरा गण विचरण करे । चन्द्रमा से ऊपर नक्षत्र मण्डल पर्यन्त चौथा सुवह नामक जो वातस्कन्ध है, हे विभो ! उनमें उन सबों का चौथा गण विचरण करे |११४-११७॥ नक्षत्र मण्डल के ऊपर से लेकर ग्रहो के मण्डल तक जो पाँचव विवाह नामक स्कन्ध है उसमें उनका पाँचवाँ सुन्दर गण विचरण करे । उक्त ग्रहमण्डल से ऊपर सप्तपि मण्डल पर्यन्त छठवां पराहत नामक जो स्कन्ध है, उसमें, हमारे पुत्रों के छठवें गणो में रहनेवाले विचरण करें ।११८-११६। और इसी प्रकार सप्तपि मण्डल से ऊपर ध्रुव मण्डल पर्यन्त जो सातवाँ परिवह नामक वायु स्कन्ध है, उसमें हमारे पुत्रों का सातवाँ गण निवास करे। ये मेरे आत्मज गण समय-समय पर उक्त स्कन्धों में विचरण करते रहें । और तुम्हारे रखे गये 'मरुत्' नाम से विख्यात हों । इस प्रकार बाते करने के उपरान्त माता

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो घ. पुस्तके नास्ति ।