पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६०७

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वायुपुराणम् ॥१३ ॥१४ ॥१५ जुगुप्सन्तः प्रसूति च निस्तन्द्रा निर्ममाऽभवन् | अजस्त्वं फाइङ्क्षमाणारते विरक्ता दोपर्दाशनः ॥११ अर्थ धर्मं च कामं च हित्वा ते वै व्यवस्थिताः । पौरुपं ज्ञानमास्थाय तेजः संक्षिप्य चाऽऽस्थिताः ॥१२ तेषां च तमभिप्रायं ज्ञात्वा ब्रह्मा चुकोप ह । तानव्रवीत्तदा ब्रह्मा निरुत्साहान्सुरानथ प्रजार्थमिह यूयं वै प्रजात्रष्टाऽस्मि नान्यथा | प्रसूयध्वं यजध्वं चेत्युक्त्वानस्मि यत्पुरा यस्माद्वाययमनादृत्य मम वैराग्यमास्थिताः | जुगुप्समानाः स्वं जन्म संतति नाभिनन्दय ( + कर्मणां च कृतो न्यासो ह्यमृतत्वाभिफाङ्ङ्क्षया | तस्माद्यूयमनादृत्य सप्तकृत्वस्तु यास्यथ ) ॥१६ ते शप्ता ब्रह्मणा देवा जयास्तं वै प्रसादयन् । क्षमात्माकं महादेव यदज्ञानात्कृतं विभो प्रणिपत्य सानुनयं ब्रह्मा तानव्रवीत्पुनः । लोके मयाऽननुज्ञातः कः स्वातन्त्र्यमिहार्हति मया परिगतं सर्वं कथमच्छन्दतो मम । प्रतिपत्स्यन्ति भूतानि शुभं वा यदि वाऽशुभम् लोके यदस्ति किंचिद्वै सच्चासच्च व्यवस्थितम् । बुद्ध्यात्मना मया व्याप्तं को मां लोकेऽतिसंधयेत् ॥ २० ॥१७ ॥१८ ॥१६ ५८६ रहित हो गये और मुक्ति की अभिलाषा से विरक्त होकर धर्म, अर्थ काम में दोप देखकर इन सब का परित्याग किया। इस प्रकार ब्रह्मज्ञान का आश्रय ले वे अपने वास्तविक तेजोवल का संचय कर मुक्ति के लिये प्रयत्नशील हुए ।७-१२। उन सवों के ऐसे अभिप्राय को जानकर ब्रह्मा को क्रोध उत्पन्न हुआ और तम उन निरुत्साही देवताओं से उन्होने कहा – प्रजाओं को सृष्टि के लिए हो मैंने तुम लोगों को उत्पन्न किया था, किसी अन्य प्रयोजन से नहीं और उस समय मैंने यह बाज्ञा भी दी थी कि तुम लोग जाकर सन्तति उत्पन्न करो और यशाराधन करो । किन्तु हमारी बातों पर कोई ध्यान तुम लोगो ने नही दिया । यतः मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर तुम लोग वैराग्य- पथ पर अग्रसर हो रहे हो और अपने जन्म को निन्दा करते हुये सन्ततियों का अभिनन्दन नही कर रहे हो । प्रत्युत अमरत्व को आकांक्षा से सांसारिक कर्मों को एकदम छोड़ रहे हो, अतः मैं तुम लोगो का अनादर करते हुये यह शाप देता हूँ कि तुम सब सात बार उत्पन्न होगे' ।१३-१६। ब्रह्मा के इस प्रकार शाप दे देने पर वे जय नामक देवगण उन्हे प्रसन्न करने की इच्छा से प्रार्थना करते हुए बोले, हे देवाधिराज ! विभो ! हम सबों के अप- राघों को क्षमा करे वस्तुतः अज्ञा नवश हमने ऐसा किया है।' देवताओं के अति विनय एवं प्रमाण-पूर्वक निवेदन करने पर ब्रह्मा ने पुनः कहा - इस लोक में बिना मेरी आज्ञा के कौन स्वतन्त्रता पूर्वक व्यवहार कर सकता है, इस समस्त चराचर जगत् में में परिव्याप्त हूँ, मेरी विना इच्छा के कौन ऐसा प्राणी है जो शुभ अथवा अशुभ फलों को प्राप्त हो । इस जगत मे जो कुछ सत् अथवा असत् पदार्थ पाये जाते हैं उन सब में मैं आत्मा एव बुद्धि द्वारा व्याप्त हूँ इस लोक मे मुझको भला कौन छल सकता है ?।१७-२०। इस जगत् के जीव समूह जो कुछ + नास्त्ययं श्लोको घ पुस्तके |