पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६०८

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सप्तर्षष्टितमोऽध्यायः भूतानां तर्कितं यच्च यच्चाप्येषां विधारितम् | तथा विचारितं यच्च तत्सर्वं विदितं मम मया स्थितमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् | आशामयेन तत्त्वेन कथं छेत्तुमिहोत्सहे यस्माच्चाहं विवृत्तो वै सर्वार्थमिह नान्यथा | इह कर्माण्यनारभ्य को मे छन्दाद्विमोक्ष्यते परिभाष्य ततो देवान्जयान्वै नष्टचेतसः | अब्रवीत्स पुनस्तान्वै धृतान्दण्डे प्रजापतिः यस्मान्मामभिसंधाय संन्यासो वः कृतः पुरा । यस्मात्स विफलो यत्नो ह्यपारस्त्वेष यः कृतः ॥ भविताऽतः सुखोदकों देवा भावेषु जायताम् आत्मच्छन्देन वो जन्म भविष्यति सुरोत्तमाः । मन्वन्तरेषु संमूढाः षट्सु सर्वे गमिष्यथ वैवस्वतान्तेषु सुरास्तथा स्वायंभुवादिषु | ताज्ञात्वा ब्रह्मणा तत्र श्लोको गीतः पुरातनः त्रयीं विद्यां ब्रह्मचर्यं प्रसूति श्राद्धमेव च । यज्ञं चैव तु दानं च एषामेव तु कुर्वताम् ॥ स हि स्म विरजा भूत्वा वसतेऽन्यप्रशंसया स एवं श्लोकसुक्त्वा तु जयान्देवानथाब्रवीत् । वैवस्वतेऽन्तरेऽतीते मत्समीप मिहेप्यथ ततो यूयं मया साधं सिद्धि प्राप्स्यथ शाश्वतीम् । एवमुक्त्वा तु तान्ब्रह्मा तत्रैवान्तरधीयत ५८७ ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ।।२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० निश्चित करते हैं, तथा जो कुछ विचारते हैं, वह सब हमें विदित रहता है । यह समस्त स्थावर जंगमात्मक जगत् मेरे द्वारा बनाये गये आशामय तत्त्व में स्थित है, उसे तोड़ देने का साहस किस प्रकार हो सकता है । मैंने सृष्टि विस्तार के लिये ही यह सब कार्य प्रारम्भ किया था, किसी अन्य अभिप्राय से नही अत: इस जगत् में कार्यो को न करके हमारी इच्छा के प्रतिकूल आचरण कौन कर सकता है ? प्रजापति ब्रह्मा ने उन शाप रूप दण्ड ग्रहण करनेवाले नष्टचेता जय नामक देवगणों से इस प्रकार की बातें कर पुनः उनसे कहा, देवगण ! यतः पहिले मेरे साथ प्रपंचमय व्यवहार करके इस जगत् के कार्य समूह से सुम लोगों ने संन्यास ले लिया था और उसी भावना से जो अपार प्रयत्न किया था वह नष्ट भी हो गया अतः इसका परिणाम सुखदायी होगा, तुम लोगों के वे मंगलकारी होगे । २१ - २५ | हे देवश्रेष्ठ गण ! तुम लोगों की वह उत्पत्ति स्वाधीन होगी, और स्वायम्भुव से लेकर वैवस्वत तक छः मन्वन्तरों में तुम सभी अविद्या एवं मोह से आवृत होकर जन्म लाभ करोगे | उन जय नामक देवगणों से इस प्रकार की बातें कर ब्रह्मा ने एक पुराना श्लोक कहा, जिसका आशय इस प्रकार है | त्रयी (तीनों वेद) विद्या, ब्रह्मचर्य, सन्तानोत्पत्ति, श्राद्ध, यज्ञ तथा दान - इन समस्त सत्कर्मो के करने वाले रजोगुण विहीन होकर ( सत्त्वगुण युक्त होकर ) दूसरों द्वारा प्रशंसित जीवन विताते हुए निवास करते थे' |२६-२८ ब्रह्मा ने इस आशय के श्लोक का उच्चारण कर उन जय नामक देवगणों से पुनः कहा - देववृन्द ! उस अन्तिम वैवस्वत मन्वन्तर के समाप्त हो जाने पर तुम लोग हमारे समीप यहाँ पुनः आओगे । और तभी हमारे साथ तुम्हें शाश्वती सिद्धि प्राप्त होगी।' देवताओं से ऐसी बातें कर ब्रह्मा वही पर