पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६०६

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सप्तर्षष्टितमोऽध्यायः एवमुक्तस्तदा सूतो विनयो ब्रह्मवादिभिः | उवाच वदतां श्रेष्ठो यथा पृष्टो सहर्षिभिः सूत उवाच ब्रह्मणो वै सुखात्सृष्टा यथा देवाः प्रजेप्सया । सर्वे मन्त्रशरीरास्ते स्मृता मन्वन्तरेविह दर्शश्च पौर्णमासश्य बृहद्यच्च रथन्तरम् | आकृतः प्रथमस्तेषां ततस्त्वाकूतिरेच च वित्तिश्चैव सुवित्तिश्च आकृतिः कूतिरेव च । अधीष्टस्तु ततो ज्ञेयः अधोतिश्चैव तत्वतः ॥ विज्ञातिश्चैव विज्ञातो मनवो ये च द्वादश

  • ज्ञेयो द्वादशपुत्रश्च यश्चान्देन समाजयेत् । तं दृष्ट्वा चातनी ब्रह्मा जया देवानसूयत

दाराग्निहोत्रसंयोगमिज्यामारभतेति च । एवमुक्त्वा तु तं ब्रह्मा तत्रैवान्तरधीयत ततस्ते नाभ्यनन्दन्त तद्वाक्य परमेष्ठिनः | संन्यस्येह तु कर्माणि वाङ्मनः कर्मजाति तु यमेष्वेवावतिष्ठन्ते दोषं दृष्ट्वा तु फर्मसु । क्षयातिशययुक्तं तु ते दृष्ट्वा कर्तॄणां फलस् ते ५८५ ॥३

  • एतदर्घस्थान इदमर्धम् - ज्ञेयो दशपुत्रः पश्चाव्देन सामाजयेत्यजेदिति ख. ग. प. उ. पुस्तकेषु ।

फा०-७४ १॥४ ॥५ ॥६ ॥७ 11८ ite १।१० ऋपियों के इस प्रकार पूछने पर बोलनेवालों में श्रेष्ठ, सूत ने उस विषय को सविनय कहा जिसे महर्षियों ने पूछा था ।१-३॥ ये ने कहा- - सभी मन्वन्तरों में प्रजा को सृष्टि करने की इच्छा से ब्रह्मा के मुख से जिन देवताओं की सृष्टि हुई वे सन मन्त्रमय शरीर कहे जाते है । (१) दर्श ( २ ) पौर्णमास (३) वृहत् (४) रथन्तर, इनमें सर्वप्रथम ( ५ ) आकूत की गणना की जाती है, तदनन्तर ( ६ ) आकृति की । (७) वित्ति ( 5 ) सुवित्ति आकृति (ऊपर नाम आ चुका है) (६) कृति, (१०) अधीष्ट (११) अधीति और (१२) विज्ञाति बारह मनु है|४-६। ये बारह ब्रह्मा के पुत्र जाने गये है, जो वर्षों के समूह सूचक हैं | उन बारह पुत्रो को देखकर ब्रह्मा ने कहा । हे जयगण ! तुम लोग अन्यान्य देवताओं को उत्पन्न करो । स्त्री परिग्रह, अग्निहोत्र एवं यज्ञाराधन आदिकार्यों को सम्पन्न करो, उनसे ऐसी बाते कर वह्ना वही पर अन्तर्हित हो गये। किन्तु उन सयो ने परमेष्ठी की इस आज्ञा का अभिनन्दन नही किया और सासारिक कर्मों में अनेक दोष देखकर मनसा, चाचा, कर्मणा सिद्ध होनेवाले कर्मजाल को छोड़कर यम नियमादि से अपना नाता जोड़ा। सभी सांसारिक कर्मों के फलों को अति विनश्वर एवं अस्थायी देख वे सन्तानो की निन्दा करते हुए ममता तथा आलस्य से