पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६००

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षट्षष्टितमोऽध्याय | एका तनुः स्मृता वेदे धर्मशास्त्रे पुरातने | सांख्ययोगपरैर्वीरैः पृथक्त्वैकत्वशभिः ॥ अभिजातप्रभावज्ञऋषिभिस्तत्त्वशिभिः एकत्वे च पृथक्त्वे च तासु भिन्नाः प्रजास्त्विह । इदं परमिदं नेति ब्रुवन्तो भिन्नदर्शनाः ब्रह्माणं कारणं केचित्केचित्प्राहुः प्रजापतिम् । केचिच्छिवं परत्वेन प्राहुविष्णुं तथाऽपरे ॥ अविज्ञानेल संगक्ता सक्ता रत्यादिचेतसा तत्त्वं कालं च देशं च कार्याण्यावेक्ष्य तत्त्वतः । कारणं च स्मृता होता नानार्थेण्विह देवताः एकं निन्दति यस्तेषां सर्वानेव स निन्दति । एकं प्रशंसमानस्तु सर्वानेव प्रशंसति ॥

  • एकं निन्दति यस्तेषां सर्वानेव स निन्दति । एकं यो वेत्ति पुरुषं तमाहुर्ब्रह्मवादिनम्

अद्वेषस्तु सदा कार्यो देवतासु विजानता | न शक्यमीश्वरं ज्ञातुसैवर्येण व्यवस्थितम् एकात्मा स त्रिधा भूत्वा संमोहयति यः प्रजाः । एतेषां च त्रयाणां तु विचरन्त्यन्तरं जनाः जिज्ञासन्तः परीक्षन्तः सता रूपाविचेतसः । इदं परमिदं नेति वदन्ति भिन्नदशिनः ५७८ ॥११० ॥१११ ॥११२ ॥११३ ॥११४ ॥११५ ॥११६ ॥११७ पृथक्त्व एवं एकत्व के देखनेवाले, उनको प्रतिष्ठा एवं मर्यादा के प्रभाव को जाननेवाले तत्वदर्शी ऋषियों ने स्वयम्भू की केवल एकमूर्ति वेदों में तथा प्रचीन धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में निरूपित की है । स्वयम्भू के इस एकत्व एवं पृथक्त्व को लेकर प्रजाओं में भिन्न-भिन्न मत हैं, वे भिन्न-भिन्न मत रखनेवाले "यह सर्वश्रेष्ठ है यह नहीं" ऐसा निःसार मत रखते है ।१०६-१११। इनमें से कोई तो प्रजापति ब्रह्मा को आदि कारण मानते हैं, कोई शिव को श्रेष्ठ मानते है, कोई विष्णु को मानते हैं । वे सभी अवैज्ञानिक एवं राग द्वेषादि दुर्गुणों में अनुरक्त होने के कारण ऐसा मानते है । जगत् के नाना कार्यों में देश, काल एवं कर्म कारण स्वरूप वे स्वयम्भू ही विविध देवताओं के रूप में स्मरण किये जाते हैं । इसलिये उन तीनों महान् विभूतियों में किसी एक जो निन्दा करता है वह सवों की निन्दा करता है, और किसी एक की जो प्रशंसा करता है वह सब की प्रशंसा करता है। एक की उनमें जो निन्दा करता है वह सब की निन्दा करता है,) इस तरह की भावना रखकर जो उन तीनों मूर्तियों को एक रूप में मानता है वही ब्रह्मवादी कहा गया है | ११२-११४। इसलिये विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह देवताओं में द्वेष की भावना न रखे । उस परम ऐश्वर्य समन्वित ईश्वर को कोई अच्छी तरह जानने में समर्थ नही हो सकता, वस्तुतः वह एकात्म होकर तीनों रूपों में विभक्त होकर प्रजाओं को सम्मोहित करता है। इन तीनों स्वरूपों के ऊँच-नोच के भाव को जिज्ञामा करते हुये अल्पज्ञ जन यथाशक्ति परीक्षा करते हैं और भिन्न-भिन्न ज्ञान एवं दर्शन के कारण "यह प्रधान है, यह अप्रधान है" ऐसी बाते करते हैं । ११५-११७/ किष्तु

  • इदमधं नास्ति क. पुस्तकें |