पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५८६

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पञ्चषष्टितमोऽध्यायः स तथ्यं वचनं श्रुत्वा जिज्ञातासंभवं शुभम् | प्रोवाच मधुरं वाक्यं तेषां सर्वगुणान्वितम् दक्षपुत्राच हर्यश्वा विदर्धयिषवः प्रजाः । समागता महावीर्या नारदस्तानुवाच ह बालिशा बत यूयं है न प्रजानीथ भूतलम् । अन्तमूर्ध्वमधश्चैव कथं सक्ष्यथ वै प्रजाः कि प्रमाणं तु मेदिन्याः स्रष्टव्यानि तथैव च । अविज्ञायेह स्रष्टव्यं अन्यथा किं तु लक्ष्यथ || अल्पं वाऽपि बहुर्वाड (वाs) पि तत्र दोषस्तु दृश्यते ते तु तद्वचनं श्रुत्वा प्रयाताः सर्वतोदिशम् । वायुं तु समनुप्राप्य गतास्ते वै पराभवम् अद्यापि न निवर्तन्ते भ्रमन्तो वायुमिश्रिताः । एवं वायुपथं प्राप्य भ्रसन्ते ते महर्षयः स्वेषु पुत्रेषु नष्टेषु दक्षः प्राचेतसः पुनः । वैरिण्यामेव पुत्राणां सहस्रमसृजत्प्रभुः प्रजा विवर्धयिषवः शवलाश्वाः पुनस्तु ते । पूर्वमुक्तं वचस्तत्र श्राविता नारदेन ह तच्छ्रुत्वा वचनं सर्वे कुमारास्ते महौजसः । अन्योन्यमूचुस्ते सर्वे सम्यगाह महानृषिः ॥ भ्रातॄणां पदवी चैव नन्तव्या नात्र संशयः ५६५ ॥१४५ ॥१४६ ॥ १४७ ॥१४८ ॥ १४६ ॥१५० ॥१५१ ॥१५२ ॥१५३ सम्पन्न यह मधुर वाते कहीं । महावलवान् दक्ष प्रजापति के हर्यश्व नामक प्रजा-सृष्टि की वृद्धि के इच्छुक पुत्रों को अपने पास आया देख नारद ने कहा – 'दक्ष के मूर्ख पुत्रों ! तुम लोग भूगोल के तत्त्व को विल्कुल नहीं जानते, इसके ऊपर क्या है ? नीचे क्या है ? इसका अन्त कहाँ होता है ? इन सब बातों को विना जाने वूझे किस तरह प्रजाओं की सृष्टि करोगे ? तुम्हें यह तो मालूम नहीं है कि इस पृथ्वी का क्या परिमाण है और इसमें कितनी प्रजाओ की सृष्टि करनी चाहिये । विना जाने यदि सृष्टि कर्म करोगे तो या अल्पता के अथवा अधिकता के अपराधी होओगे। इसके अतिरिक्त बिना जाने वृझे और क्या कर ही सकते हो । १४४-१४८। नारद की ऐसी बातें सुनकर वे दक्षपुत्र गण सभी दिशाओं की ओर चले गये और वहाँ वायुमण्डल को प्राप्त होकर एकदम शिथिल एवं पराभूत हो गये । वायुमण्डल में पहुँचकर ये वेचारे वायु के साथ घूमते हुए गाज तक नही लौट सके । इस प्रकार नारद की कूटपूर्ण बातों में आकर वे महर्षिगण वायुमण्डल में भ्रमण करते है। अपने उन पुत्रों के नष्ट हो जाने पर प्राचेतस दक्ष ने पुनः वैरिणी में एक सहस्र पुत्र उत्पन्न किये । प्रजाओं को वृद्धि के इच्छुक शबलाश्व नाम से विख्यात इन पुत्रों से भी नारद ने पुनः अपनी वही पुरानी बाते सुनाई । जिसे सुनकर उन परमतेजस्वी कुमारों ने एक दूसरे से सम्मति की कि महर्षि नारद का कहना ठीक है । अपने पूर्वज उन बड़े भाइयों की राह पर हम लोगों को बिना किसी सन्देह के चलना चाहिये ||१४६ - १५३। और इस पृथ्वीमण्डल का प्रमाण आदि समझ-बूझकर तव हम लोग सुखपूर्वक