पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५८७

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५६६ वायुपुराणम् ज्ञात्वा प्रमाणं पृथ्व्याश्च सुखं सक्ष्यामहे प्रजाः । x तेऽपि तेनैव मार्गेण प्रयाताः सर्वतोदिशम् ॥ अद्यापि न निवर्तन्ते समुद्रभ्य इवाऽऽपगा: ततः प्रभृति वै भ्राता भ्रातुरन्वेषणे रतः । प्रयातो नश्यति तथा तन्न कार्यं विमानता नष्टेषु शबलाश्वेषु दक्षः क्रुद्धोऽभवद्विभुः । नारदं नाशसेहीति गर्भवासं वसेति च तथा तेष्वपि नष्टेषु महात्मसु पुरा फिल | षष्टिकन्याऽसृजद्दक्षो वैरिण्यामेव विश्रुताः तास्तदा प्रतिजग्राह पत्म्यर्थे कश्यपः प्रभुः । धर्मः सोमस्तु भगवांस्तथैवान्ये महर्षयः इमां विसृष्टि दक्षस्य कृत्स्नां यो वेद तत्त्वतः | आयुष्मान्कोतिमान्धन्यः प्रजावांश्च भवत्युत इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते प्रजापतिवंशानुकीर्तनं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥६५॥ ॥१५४ ॥१५५ ॥१५६ ॥१५७ ॥१५८ ॥१५६ प्रजाओ की सृष्टि करेगे | 'ऐसा निश्चय कर वे लोग भी विभिन्न दिशाओ की ओर चले गये और आज तक वहाँ से समुद्र मे गई हुई नदियो की भाँति लौट नही सके । तभी से यदि बड़े भाई को खोजने के लिए छोटा भाई प्रवृत्त होता है तो वह भी नष्ट हो जाता है, बुद्धिमानो को ऐसा नहीं करना चाहिये |१५४-१५५ शवलाइव नामक अपने दूसरे पुत्र समूहों के नष्ट हो जाने पर परमऐश्वर्यशाली दक्ष प्रजापति ने नारद को शाप दिया कि 'तू नष्ट हो जा, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो और गर्भवास का कष्ट अनुभव कर' । इस प्रकार उन शबलाइव नामक महात्मा पुत्रों के नष्ट हो जाने पर प्राचीन काल मे यह सर्वप्रसिद्ध बात है कि दक्ष ने उसी वैरिणी के संयोग से साठ परम प्रसिद्ध कन्याओं को उत्पन्न किया । और उन दक्ष- पुत्रियो को प्रभु कश्यप, धर्म, चन्द्रमा तथा अन्यान्य महर्षियो ने अगीकार किया। दक्षप्रजापति के इस सृष्टि विस्तार की सम्पूर्ण कथा को जो सत्यरूप में जानता है वह दीर्घायु- सम्पन्न, यशस्वी, धनधान्यादि-सम्पन्न एव पुत्र-पौत्रादि से संयुक्त रहता है ।१५६-१५६। श्रीवायुमहापुराण में प्रजापतिवंशानु कीर्तन नामक पैसठवाँ अध्याय समाप्त ॥६५॥ x इदमर्ध नास्ति ख. ग. घ. ङ पुस्तकेषु ।