पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५७३

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५५२ वायुपुराणम् स्वायंभुवेऽन्तरे शप्ताः सत्यार्थं ते भवेन तु । जज्ञिरे वै पुनस्ते ह जनलोकाद्दिवं गताः देवस्य महतो यज्ञे वारुणीं विभ्रतस्तनुम् | ब्रह्मणो जुह्वतः शुक्रमग्नौ पूर्व प्रजेप्सया || ऋषयो जज्ञिरे पूर्व द्वितीयमिति नः श्रुतम् भृगुरङ्गिरा मरीचिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः | अनिश्चैव वसिष्ठश्च अप्टौ ते ब्रह्मणः सुताः तथाऽस्य वितते यज्ञे देवाः सर्वे समागताः । यज्ञाङ्गानि च सर्वाणि वषट्कारश्च मूर्तिमान् मूर्तिमन्ति च सामानि यजूंषि च सहस्रशः । ऋग्वेदश्वाभवत्तत्र पदकसविभूषितः यजुर्वेदश्च वृत्ताढ्य ओंकारवदनोज्ज्वलः | स्थितो यज्ञार्थसंपृक्तसूक्तवाह्मणमन्त्रवान् सामवेदश्च वृत्ताढ्यः सर्वगेयपुरःसरः । विश्वावस्वादिभिः साधं गन्धर्वैः संभृतोऽभवत् ब्रह्मदेवस्तथा घोरैः कृत्याविधिभिरन्वितः । प्रत्यङ्‌ङ्गिरसयोगैश्च द्विशरीरशिरोऽभवत् लक्षणानि स्वरा स्तोमा निरुक्तस्वरभक्तयः | आश्रयस्तु वषट्कारो निग्रहप्रग्रहावपि दीप्ता दीप्तिरिला देवी दिश: प्रदिशईश्वरा | देवकन्याश्च पत्न्यश्च तथा मातर एव च ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ गये थे । और पुनः जन्म धारण कर जनलोक से स्वर्गलोक को गये थे | देव के महान् यश मे वरुण का शरीर धारण कर सन्तानोत्पत्ति को कामना से अपने वीर्य को अग्नि में हवन करते समय ब्रह्मा से ऋषियो का द्वितीय चार प्रादुर्भाव हुआ—यह हम लोगो ने सुना है | भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, पुलस्त्य पुलह, ऋतु, अश्रि और घसिष्ठ ये आठ ब्रह्मा के पुत्र हैं।२०-२२। वरुण के उस विशाल यज्ञ में सभी देवता सम्मिलित हुए थे, यज्ञ के सभी अंग एव वषट्कार मूर्तिधारण कर उपस्थित थे । सहस्रों साम एवं यजुर्वेद के मूर्त स्वरूप थे, पद क्रम से विभूषित ऋग्वेद भी वहाँ पर मूर्तमान था । औंकार रूप मुख से उज्ज्वल, यज्ञ कार्य में प्रयुक्त होने वाले सूक्त, ब्राह्मण एवं मन्त्र भाग से संयुक्त वृत्त से संवलित यजुर्वेद वहाँ अति शोभा पा रहा था। सभी गेय पदों को पुरःसर कर विश्वासु आदि गन्धर्वो के साथ, वृत्त से संवलित सामवेद अपने सभी उपकरणो से सयुक्त शोभित हो रहा था ।२३-२६। अतिधोर कृत्या (हत्या) अदि विधियों से तथा प्रत्यङ्गिरस आदि आभिचारिक प्रयोगो से युक्त होकर एक ही शिर मे शरीर धारण कर उपस्थित था । इन सवों के अतिरिक्त लक्षण, स्वर, स्तोमी निरुक्त, स्वरो की भक्ति, आश्रम स्वरूप वषट्कार, निग्रह, प्रग्रह आदि भी उपस्थित थे । दीप्ता, दीप्त, इला, देवी, सभी दिशाएँ, विदिशाएँ, दिक्पालगण, देवकन्याएँ, देवपत्निय, मातृकाएँ तथा आयु- ये सब भी स्वरूप धारण कर वरुण का रूप धारण करने वाले देव के अग्नि मुख में हवन करते समय उपस्थित रहे । २७-२६। उन १. गान के स्वर को पूरा करने के लिये शब्द विशेष का प्रयोग किया जाता है, जिसका कोई विशेष अर्थ नहीं होता, जैसे सामवेद में 'इडा' 'होई' आदि । २. विभाजन की प्रणाली ।