पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५७२

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पञ्चषष्टितमोऽध्यायः तेषां प्रसूति वक्ष्यामि विशुद्धज्ञानकर्मणाम् | समासव्यासयोगाभ्यां यथावदनुपूर्वशः येषामन्वयसंभूतैर्लोकोऽयं सचराचरः । पुनः स पूरितः सर्गो ग्रहनक्षत्रमण्डितः एतच्छ्र त्वा वचस्तस्य मुनीनां संशयोऽभवत् । ततस्तं संशयाविष्टाः सुतं संशय निश्चये ॥ सत्कृत्य परिपप्रच्छुर्मुनयः संशितव्रताः ऋषय ऊचु: कथं सप्तर्षयः पूर्वमुत्पन्नाः सप्त मानसाः । पुत्रत्वे कल्पिताश्चैव तन्नो निगद सत्तम ॥ ततोऽब्रवीन्महातेजाः सुतः पौराणिक: शुभम् सूत उचाच कथं सप्तर्षयः सिद्धा ये वै स्वायंभुवेऽन्तरे | मन्वन्तरं समासाद्य पुनर्वैवस्वतं किल भवाभिशापात्संविद्धा ह्यप्राप्तास्ते तदा तपः । उपपन्ना जने लोके सकृदागामिनस्तु ते ऊचुः सर्वे ततोऽन्योन्यं जनलोकं महर्षयः । ऊचुरेव महाभागा वारुणे वितते कृतौ सर्वे वयं प्रयामश्चाक्षुषस्यान्तरे मनोः । पितामहात्मजाः सर्वे ततः श्रेयो भविष्यति ५५१ ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ सन्ततियों का क्रमशः वर्णन संक्षेप और विस्तारपूर्वक मैं कर रहा हूँ, जिसके वंश से उत्पन्न होने वालों से ग्रहों एवं नक्षत्रों से विमण्डित इस चराचर जगत् की सृष्टि पुनः पूरित की जाती है। सूत की ऐसी बातों से जब मुनियों के मन में बहुत सन्देह हुआ तब संशय से युक्त सद्व्रतपरायण मुनियों ने सूत जी का अति सत्कार कर जिज्ञासा प्रकट की 1१२-१४॥ ऋषियों ने पूछा- 'हे सत्तम ! पूर्वकाल में वे सप्तर्षि गण किस प्रकार मानसिक संकल्प से उत्पन्न हुये और किस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र माने गये - इस वृत्तान्त को हमें वतलाइये । ऋषियों को ऐसी बातें सुन कर पुराणों के विशेषज्ञ महातेजस्वी सूत ने उस शुभ कथा को बतलाया |१५१ - सूत ने कहा- किस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तर में वे सप्तर्षिगण सिद्धि को प्राप्त हुये और फिर वैवस्वत मन्वन्तर में महादेव के शाप अपनी सिद्धिदात्री तपस्या से च्युत हुये और मयंलोक में आकर उत्पन्न हुए - इसका वर्णन मैं कर रहा हूँ। वे सप्तर्षि गण जन लोक में एक बार जन्म धारण करते हैं । जन लोक में आकर उन महाभाग्यशाली सप्तर्पियों ने आपस में यह सलाह की और एक दूसरे से कहा कि वरुण यज्ञ के समाप्त हो जाने पर चाक्षुष मन्वन्तर में चलकर हम सभी पितामह ब्रह्मा जी के आत्मज होंगें तब फिर हमारा कल्याण होगा |१६-१९| स्वायम्भुव मन्वन्तर में सत्य आचरण के लिये वे महर्षि गण शिव द्वारा अभिशप्त किये