पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५७१

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

५५० वायुपुराणम् पादः कान्तोऽद्वितोयोऽयमनुषङ्गण यस्त्वया | तृतीयं विस्तरात्पादं सोपोद्धातं प्रकीर्तय || एवमुक्तोऽब्रवीत्सतः प्रहृण्टेनान्तरात्मना सूत उवाच कीर्तयिष्ये तृतीयं च सोपोद्धातं सविस्तरम् । पादं समुदयाद्विप्रा गदतो मे निर्वाोधत मनोर्वैवस्वतस्येमं सांप्रतस्य महात्मनः । विस्तरेणाऽऽनुपूर्व्या च निसर्ग शृणुत द्विजाः चतुर्युगेकसप्तत्या संख्यातः पूर्वमेव तु | सह देवगणैश्चैव ऋऋषिभिर्दानवः सह पितृगन्धवयक्षैश्च रक्षोभूतगणैस्तथा । मानुषैः पशुभिश्चैव पक्षिभिः स्थावरैः सह मन्वादिकं भविष्यान्तमाख्या नैर्बहुविस्तरम् । वक्ष्ये वैवस्वतं सर्गं नमस्कृत्य विवस्वते आद्ये मन्वन्तरेऽतीताः सर्गाः प्रावर्तकाश्च ये | स्वायंभुवेऽन्तरे पूर्ण सप्ताऽऽसन्ये महर्षयः ॥ चाक्षुषस्यान्तरेऽतीते प्राप्ते वैवस्वते पुनः दक्षस्य च ऋषीणां च भृग्वादीनां महौजसाम् । शापात्महेश्वरस्याऽसीत्प्रादुर्भावो महात्मनाम् भूयः सप्तर्षयस्ते य उत्पन्नाः सप्त मानसाः | पुत्रत्वे कल्पिताश्चैव स्वयमेव स्वयंभुवा प्रजासंतानकृद्भिस्तैरुत्पद्यद्भिर्महात्मभिः | पुनः प्रवतितः सर्गो यथापूर्वं यथाक्रमम् ॥२ ॥३ ॥४ ॥५ ॥६ १७ ॥८ HIE ॥१० ॥११ सुन चुके, अव तीसरे उपोद्घात नामक पाद को विस्तारपूर्वक हमें सुनाइये । शशिपायन के ऐसा कहने पर अन्तरात्मा से अतिशय हषित होकर सूत बोले |१-२॥ सूत ने कहा-~-ऋषिवृन्द ! अब में उपोद्घात नामक तीसरे पाद का वर्णन विस्तारपूर्वक कर रहा हूँ, उसे अविकल रूप से मुनिये । महात्मा वैवस्वत मनु के इस सृष्टि क्रम का विस्तारपूर्वक क्रमशः वर्णन में कर रहा हूँ, सुनिये । पहिले ही इस बात का वर्णन कर चुका हूँ कि मन्वन्तर का कार्यकाल इकहत्तर बार चारो युगों के बीत जाने पर समाप्त होता है | देवगणों, ऋषियों, दानवो, पितरो, गन्धर्वो, यशों, राक्षसो, भूतो, मनुष्यो, पशुओ, पक्षियों एवं स्थावरों के साथ इस वैवस्वत मन्वन्तर के सृष्टि क्रम का विस्तृत वर्णन एवं भविष्यत्काल मे घटित होने वाले अनेक आख्यानों को मे विवस्वान् को प्रणाम कर कह रहा हूँ | ३ ७१ प्रथम स्वायम्भुव नामक मन्वन्तर में जो सृष्टि कार्य के प्रवर्तक सात ऋषि वर्तमान थे, चाक्षुष मश्वतर के बीत जाने पर वैवस्वत मन्वन्तर प्रारम्भ होता है उस काल मे भी महेश्वर के शापवश पुनः प्रादुर्भूत होते है । दक्ष प्रजापति, भृगु प्रभृति परम तेजस्वी एवं महात्मा ऋषियों का भी प्रार्दुभाव होता है । वे ही सातों ऋषि पुनः ब्रह्मा के सा मानस पुत्रों के रूप मे उत्पन्न होते है, स्वयं स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा ही उन्हे अपने पुत्र रूप में नियुक्त करते हैं । उत्पन्न होकर वे महात्मा सप्तर्पिगण विविध प्रजाओं एवं सन्ततियो की कामना से पुनः सृष्टि का कार्य उसी पुराने क्रम के अनुरूप प्रारम्भ करते है 1८-११। उन विशुद्ध ज्ञान एवं विशुद्ध कर्म वाले उन महात्माओं की