पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४९७

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४७६ TO "वाएँपुराणे धर्माधर्माविह प्रोक्तौ शब्दावेतौ क्रियात्मकौ । कुशलाकुशलं कर्म धर्माधर्माविति स्मृतो -ः ।।२७ [+ धारणा धृतिरित्यर्थाद्धतोर्धर्मः प्रकीfततः। अधरणेऽमहत्त्वे च अधर्म इति चोच्यते - ॥२८ अत्रेष्टमापको धर्म आचरैरुपदिश्यते]। वृद्धा ह्यलोलुपाश्चैव आत्मवन्तो हृदम्भकाः । सम्यग्विनीता ऋजयस्तानाचार्यान्प्रचक्षते २७ स्वयमाचरते यस्मादाचारं स्थापयत्यपि । आचिनोतिं च शास्त्रार्थान्यमैः संनियमैर्युतः ।।३० पूर्वेभ्यो वेदयित्वेह श्रौतं सप्तर्षयोऽब्रुवन् । ऋचो यचूंषि सामानि ब्रह्मणोऽङ्गानि च श्रुतिः ॥३१ मन्वन्तरस्यातीतस्य स्मृताऽऽचारं पुनर्जगौ । तस्मात्संमार्तःस्मृतो धर्मो वर्णाश्रमविभागजः ॥i३२ से एंष द्विविधो धर्मः शिष्टाचारं इहोच्यते । शेषशब्दाच्छेष्ट इति शिष्टचारः प्रचक्ष्यते : १३३ मन्वन्तरेषु ये शिष्ट इह तिष्ठन्ति धार्मिकाः । मनुः सप्तर्षयश्चैव लोकसंतानकारणात् । धर्मार्थ ये च शिष्ट वै याथातथ्यं प्रचक्षते । ३४ अर्थात् वैसा आचरण करने पर निष्पन्न होते है कुशलता एवं अकुशलता सम्पादित कृरने वाले कर्म ही घर्म और अधमें के नाम से विख्यात हैंअर्थात् जिसके आचरण करने से कुशल हो उसे घमं तथा जिसके आचरण से अमंगल की प्राप्ति हो उसे अर्धर्म कहते है । धारणार्थक पृ"धातु से होती '’घमं शब्द की निष्पत्ति है। जो धारण करने योग्य नहीं है, जिसके आचरणं' से महत्व की प्राप्ति नही होती उसे मेघंमें कहते हैं। इस प्रसङ्ग में आचार्य लोग उसे घर्म कहते है. जिसके आचरण से इष्टं की प्राप्ति हो जो वृद्ध' लोम विहीन आत्मनिष्ठ, दम्भरहित. विपुल विद्यावान्, विनम्र तथा 'सरल हों उन्हे आचयं कहते है ।२७-२९। यतः वे आचार्य गण सभी नियमो एवं संयमों साथ स्वयम् उन आचरणीयधर्म कोर्यों को अनुष्ठान के सुरते . सी. लोक को प्रवृत्त करने के लिए मर्यादा स्थापिस करते , शस्त्रों के अयों को संग्रहीत करते हैं, अतः उन्हें आचार्य कहते है । सप्तर्षि गण पूर्व कल्पों में उंपत होने वाले लोगों को ऋके यं साम वेदि' क्षुiतय७६ वेदाङ्गों का उपदेश कर श्रोत'घर्म का ज्ञान’ लाभ ‘कराते है ऐसा सना जाता है । 'बीते हुए मन्वन्तरों में उत्पन्न होने वाले लोगों के अचारों का स्मरण कर वे वर्तमानं मन्वन्तर' के लोगों को उपदेशे' करते हैं अतः वर्णाश्रम के विभागों से संयुक्त ‘उसे धर्म ' को स्मतं धर्म कहते है ।३०-३ * । इस प्रकार लोके में ये दो अंत एव स्मार्त घर्मे शिष्टाचार नाम से प्रसिद्ध है। शेष' शब्द से शिष्ट शब्द की नितिहोती है और डैन्हीं शिष्ट लोगों के आचारों को शिष्टाचरे कहा जाता हैं । प्रत्येक मन्वन्तरों की समाप्ति के असवर पर जिन धार्मिक प्रवृत्ति वाले मनु एव सप्तष प्रभृति महानुभावों की सत्ता लोकमें सन्तानोत्पत्ति के बीजारोपण एवं धर्म की १ ) +धनुश्चिह्न्तरग्रन्थो गः पुस्तके नास्ति ।