पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४९६

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एकोनषष्टितमोऽध्यायः ४७५ तेषां हपानुरूपैस्तैः प्रमाणैः स्थाणुजङ्गमैः। मनोलैस्तत्त्वभवनैः सुखिनो ह्य,पपेदिरे १८ अतः शिष्टान्प्रवक्ष्यामि सतः साधूस्तथैव च । सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तष्ठन्तो ये भवन्त्युत ।। सायुज्यं ब्रह्मणोऽत्यन्तं तेन सन्तः प्रचक्षते १६ दशात्मके ये विषये कारणे चाष्टलक्षणे । न क्रुध्यन्ति न हृष्यन्ति जितात्मानस्तु ते स्मृतः ॥२० सामान्येषु च धर्मेषु तथा वैशेषिकेषु च । ब्रह्मक्षत्रविशो युक्ता यस्मात्तस्माद्विजातयः ।।२१ वर्णाश्रमेषु युक्तस्य स्वर्गगोमुखचारिणः । औतस्मार्तस्य धर्मस्य ज्ञानाद्धर्मः स उच्यते २२ विद्ययाः साधनात्साधुर्जह्मचारी गुरोहितः । क्रियाणां साधनाच्चैव गृहस्थः साधुरुच्यते ॥२३ साधनातपसोऽरण्ये साधुर्वैखानसः स्मृतः । यतमानो यतिः साधुः स्मृतो योगस्य साधनात् ॥२४ एवमाश्रमधर्माणां साधनात्साधवः स्मृताः । गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः २५ न च देवा न पितरो मुनयो न च मानवाः । अयं धर्मो ह्ययं नेति ब्रुवते भिन्नदर्शनाः २६ स्थावर एवं जंगम जीवो के उपर्युक्त प्रमाणों के अनुरूप तथा उन्ही के स्वरूप के अनुसार मनोहरि स्वरूप धारण कर ये जीवगण सुख का तात्त्विक अनुभव करते है ।१६१८। अब इसके उपरान्त मैं सन्तों, साधुओं एवं शिष्ट पुरुषों के बारे मे वतला रहा हूँ। 'सत्' यह ब्रह्मवाची शब्द है, जो लोग ब्रह्मवान् (ब्रह्मनिष्ठ) होते है तथा ब्रह्म का अत्यन्त सायुज्य प्राप्त करते है, वे सन्त कहलाते है । जो लोग दस प्रकार के विषयों एवं आठ प्रकार के कारणों में फंसकर कभी शुद्ध और हर्षित नही होते थे जितात्मा कहे जाते हैं । यतः सामान्य और विशेष इन दोनों प्रकार के धर्मों से अनुमोदित आचरण करते हैं, अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग द्विजाति कहलाते हैं । वर्णाश्रमाचार योग युक्त स्वर्ग, तीर्थ एवं मंत्रात्मक शूति स्मृति से अनुमोदित घर्म का ज्ञान वास्तविक धर्म का ज्ञान वास्तविक धर्म कहलाता है ।१६-२२। गुरु का हित करने वाला ब्रह्मचर्य व्रत परायण विद्यार्थी विद्या की साधना में तन्मय रहने के कारण साधु कहा जाता है । सक्रियाओं के साधन में लीन रहने से गृहस्थाश्रम में रहने वाला व्यक्ति साधु कहाता है । घोर जङ्गल में तपस्या की साधना में निरत रहने वाला वैखानस साधु कहा जाता है । योंगाभ्यास में परायण यति योग की साधन में लीन रहने के कारण साधु कहा जाता है । इसी प्रकार आश्रम धर्म के पालन करने वाले अपने अपने घर्मा के पथ पर अडिग रहने के कारण साधु कहे जाते है, वे चाहे गृहस्थ हों, चाहे ब्रह्मचर्य व्रत मे विद्याभ्यास करने वाले विद्यार्थी हों चाहे वानप्रस्थाश्रम में दीक्षित होकर भिक्षाटन पर निर्भर हों । तो न देवता, न पितर, न मुनिगण और न मनुष्य–इनमें से कोई भी-भिन्न-मतो के कारण 'यह घर्म है, यह अधर्म है' ऐसा कहने में समर्थ नहीं हो सकते २३२६। इस जगत् में घर्म तथा अधर्म ये दो शब्द जो कहे गये है, वे क्रियात्मक