पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४९८

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एकोनषष्टितमोऽध्यायः ४७७ संवादंयश्च ये शिष्ट ये सय प्राणुवरिताः। तैः शिष्टैश्चरितो धर्मः सम्यगेव युगे युगे : u३५ त्रयी वार्ता दण्डनीतिरिज्या वर्णाश्रमस्तथा । शिष्टैराचर्यते यस्मान्मनुना च पुनः पुनः। पूर्वैः पूर्वगतत्वाच्च शिष्टाचारः स शाश्वतः ( ४ : - ३६ दानं सत्यं तपोऽलोभो द्विधेज्याप्रजनौदया। अष्टौ तानि चरित्राणि .शिष्टाचरस्य,लक्षणम् ; ३७ शिष्ट यस्माच्चरन्त्येनं मनुः सप्तर्षयश्च वै । मन्वन्तंरेषु सर्वेषु शिष्टाचारस्ततः स्मृतः ३८ विज्ञेयः श्रवणाच्छौतः स्मरेणास्मत उच्यते१ इज्यवेदात्मकःश्रतः स्मार्ता वर्णाश्रमात्मकः ॥ ; प्रत्यङ्गानि च'वक्ष्यामिं धर्मस्येह तु लक्षणम् ३६ दष्ट प्रभूतमर्थं यः पृष्टो वै न निगूहति । यथा भूतप्रवादस्तु इत्येतत्सत्यलक्षणम् ब्रह्मचर्यं जपों मौनं निराहारत्वमेव च१ इत्येतत्तपसो मूलं सुघोरं तंदुरासदम् ४१ पशूनां द्रव्यहविषामृक्सासंयैर्जुषां तथो । ऋत्विजां दक्षिणंनां च संयोगो यज्ञ उच्यते । ४२ आत्मवत्सर्वभूतेषु या हितायाहिताय च। संमा प्रवर्तते दृष्टिः कृत्स्ना हाथैषा दया स्मृत ." ४३ ४० । b• { मर्यादा व्यवस्था स्थैपना के लिए शेष रह जाती है, उन्हें ही इवास्तव में शिष्ट कहा जाता है। मनु प्रभूति जिनः शिष्ट महानुभवों का वर्णनों मैं अभी-अभी थोड़ी-देर पहिले कर चुका हूं, उन्ही लोगों द्वारा प्रत्येक युगों में भैलो तरह ओचरण" किया गया घर्म श्रौत तथा स्मार्त के नाम से प्रसिद्ध है।३३-३५। त्रयीवार्ता दण्डनीति, यज्ञाराधन, वर्णाश्रम व्यवस्था-इन संब का यतः मनु-और पूर्वकालीन । शिष्ट ऋषिगण आचरण करते हैं, और बहुत दिनों में उनकी परम्परो अक्षुण्ण चली आती है,-अतः वही शाश्वत ( सर्वदा वर्तमान रहने वाला ) शिष्टाचार है । 'दान, सत्य, तपस्या, लोभनिवृत्ति, विद्याध्ययन," यज्ञाराधन सन्तानोत्पति और दया—ये आठ शिष्टों केआचरण शिष्टाचार के लक्षण हैं । यतः सभीरमन्वन्तरों में मनु, सप्तष तथा शिष्ट लोग इन घर्मो को पालन करते हैं अतः इन्हें शिष्टाचार-कहते हैं। -इन धमॅ -को श्रवण ( सुनने) द्वारा ज्ञात होने के कारण श्रोत और स्मरण द्वारा ज्ञात होने के कॉरण स्मतं ‘जानना चाहिये। इनमें यज्ञाराधन “ वेदाध्ययन प्रभृति घेर्न कार्यों को श्रौत और ब्राह्मणादि चारों वर्ण एवं गृहस्थाश्रम के प्रभृति चारों आश्रमों के अनुकूल किये जाने वले धर्म कार्यों को स्मेतं जानना चाहिये । अव मै ‘धर्म के प्रत्येक अंगों के लक्षण एवं उनकी व्याख्या करु रहा हूँ ।३६३७जो व्यक्ति घटित घटनाओं को देखकर - पूछे जाने पर कुछ भी नहीं छिपाता और वास्तविक बतको ज्यों का त्यों प्रेक्ट कर देता है, उसके इस- व्यवहार को सत्य ' कहा गया है। ब्रह्मचर्य, जप, मौन, और निराहारये 'अति कठिन तथा दुर्लभ तपस्या के मूल है । पशु, द्रव्य हवनीय पदार्थ ऋक्, साम, और यजुर्वेद के मंत्र. पुरोहित और दक्षिणा–इन सबके संयोग का नाम “यज्ञ- कहा जाता है । हित एवं अहित करने वाले सभी प्रकार के जीवों में अपने समान दृष्टि रखना दया का लक्षण कहा गया है ।४०.४३