पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४५४

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पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः ४३५ एतद्विरूपमज्ञातमव्यक्तं शिवसंज्ञितम् । अचिन्त्यं तददृश्यं च पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ६३ [*तस्में देवाधिपत्याय नमस्कारं प्रयुञ्ज्वहे। येन सूक्ष्ममचिन्त्यं च पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ ।।६४ ॥ महादेव नमस्तेऽस्तु महेश्वर नमोऽस्तु ते । सुरासुरवरश्रेष्ठ मनोहंस नमोऽस्तु ते । ६५ स्त उवाच एतच्छ त्वा गताः सर्वे सुराः स्वं स्वं निवेशनम् । नमस्कारं प्रयुञ्जानाः शंकराय महात्मने ।।६६ इमं स्तवं पठेद्यस्तु ईश्वरस्य महात्मनः। कामांश्च लभते सर्वान्पापेभ्यस्तु विमुच्यते ।।६७ एतत्सर्वं सदा तेन विष्णुना प्रभविष्णुना। महादेवप्रसादेन उक्तं ब्रह्म सनातनम् । एतद्वः सर्वमाख्यातं मया माहेश्वरं बलम् ६८ इति श्रीमहापुराणे वायुशोक्ते लिङ्गोद्भवस्तवो नाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः ।५५। सृष्टि की है, हम लोग तो हेतुमात्र हैं । ये भगवान् स्वरूप रहित है, अज्ञात है, अव्यक्त हैं, लोक में उनकी शिवनाम से प्रसिद्धि है, वे अचिन्त्य हैं, अदृश्य हैं, ज्ञान चक्षु पण्डितजन ही उन्हें देख सकते है । उन देवाबि- पति को हम ममस्कार करते हैं जिनके द्वारा ज्ञान चक्षु पण्डितजन सूक्ष्म एवं अचिन्त्य पदार्थों का दर्शन करते हैं। हे महादेव ! तुम्हें हमारा नमस्कार है । महेश्वर ! हम तुम्हें नमस्कार करते हैं, सभी सुरासुरों में श्रेष्ठ ! मनोस ! तुम्हें हमारा नमस्कार स्वीकार हो ।६१-६५ । धृत बोले-इस प्रकार की बातें सुनकर सभी देवगण महात्मा | शंकर को नमस्कार करते हुए अपने-अपने वासस्थान को चले गये । जो मनुष्य महारमा शंकर के इस उपर्युक्त स्तोत्र का पाठ करता है, वह सभी मनोरयों को प्राप्त करता है तथा सभी पापों से विमुक्त होता है । इस प्रकार महामहिमामय सनातन ब्रह्म भगवान् विष्णु ने महादेव की कृपा से इन उपर्युक्त वातो की चर्चा की। और वह सब महेश्वर की पराक्रम प्रकट करने वाली बातें मैंने तुम लोगों को सुनाई ॥६६-६८॥ श्रीवायुमहापुराण का लिङ्गोद्भव स्तव नामक पचपनवाँ अध्याय समाप्त ।५५।

  • घनुदिचह्नान्तर्गतग्रस्थो ध. पुस्तके नास्ति ।