पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४१८

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द्विपञ्चाशोऽध्यायः ३६६ ६९ तस्माद्ध्रसन्ति वै कृष्णे शुक्ल आप्याययन्ति च । इत्येवं सूर्यवीर्येण चन्द्रस्यऽऽप्यायिता तनुः ५८ पौर्णमास्यां स दृश्येत शुक्लः संपूर्णमण्डलः। एवमाप्यायितः सोमः शुक्लपक्षे दिनक्रमात् ॥५e ततो द्वितीयाप्रभृति बहुलस्य चतुर्दशी । अपां सारमयेस्येन्दो रसमात्रात्मकस्य च । पिबन्त्यम्बुमयं देवा मधु सौम्यं सुधामयम् ६० संभृतं चार्धमासेन अमृतं सूर्यतेजसा। भक्षार्थममृतं सौस्यं पौर्णमास्यामुपासते एकरात्रं सुरैः सर्वैः पितृभिश्च महषिभिः। सोमस्य कृष्णपक्षादौ भास्कराभिमुखस्य च । प्रक्षीयते परस्यान्तः पीयमानाः कलाः क्रमात् ६२ (*त्रयश्च त्रिशतं चैव त्रयस्त्रशत्तथैव च। त्रयस्त्रिशत्सहस्राक्ष देवः सोमं पिबन्ति वै इत्येतैः पीयमानस्य कृष्णा वर्धन्ति वै कलाः)।+क्षीयन्ते तस्मात्कृष्णे या शुक्ले ह्याप्याययन्ति ताः । एवं दिनक्रमातीते बिबुधास्तु निशाकरम् । पीत्वाऽर्धमासं गच्छन्ति अमावास्यां सुरोत्तमाः । पितरश्चोपतिष्ठन्ति अमावास्यां निशाकरम् ॥६५ ६३ करते हैं । तब सुषुम्न किरण द्वारा परिपूर्ण चन्द्रमा की कला उज्ज्वलतर हो जाती है । अतः कृष्णपक्ष में चन्द्र का ह्रास होता है और शुक्ल पक्ष में वे परिपूर्ण होते हैं । इस प्रकार सूर्य के सामथ्र्य से चन्द्रमा का शरीर घटता-बढ़ता है । शुक्लपक्ष में दिन क्रम से चन्द्रदेव परिपुष्ट हो जाते है और वे पूणिमा को उज्ज्वल परिपूर्ण मण्डल से प्रकाशित होने लगते हैं ।५६-५६ फिर कृष्णपक्ष को द्वितीया से लेकर चतुर्दश पर्यन्त देवगण जल के सार स्वरूप और रसमय चन्द्र के जल प्रधान और सुधामय सुन्दर मधु का पान करते है । वह अमृत सूर्य के तेज से आधे मास मे संचित होकर पूर्णमासी में देवो के भोजन के लिये कल्पित होता है । कृष्णपक्ष के आदि मे एक रात देवता, पितर और महषिगण भास्कराभिमुखवर्ती चन्द्र का पान करते हैं । पीने पर उनकी कला फिर धीरेधीरे क्षीण होने लगती है ।६०-६२। तेतीस हजार तेतीस सो तीन देवता चन्द्र के मधु का पान करते हैं । इसके द्वारा पी जाने पर चन्द्रमा की कृष्णपक्ष की कला फिर बढ़ने लगती है। इसीलिये कृष्णपक्ष में इनकी कला क्षीण होती है और शुक्ल पक्ष में बढ़ने लगती है । इसी प्रकार देवगण प्रतिदिनक्रम से आधे मास तक 'चन्द्रमा को पीकर अमावास्या को प्रस्थान करते है । पुनः अमावास्या आते ही पितर लोग चन्द्रमा के निकट आ जाते है ।६३-६५ चन्द्रमा की पन्द्रहवी कला का जो अवशेष रह जाता है, उसे पितरु ‘घनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः क. ग. पुस्तकेयोर्नास्ति । +एतदर्धस्थान इदमर्घ वर्तते--क्षीयन्ति तस्माच्छुक्ला या कृष्णा ह्याप्याययन्ति च ।