पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४१७

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३६८ ४८ प्रथितैर्वचोभिरर्यैः स्तूयमानो महर्षिभिः। सेव्यते गोतनृत्यैश्च गन्धर्वैरप्सरोगणैः। पतङ्गः पतगैरश्वंभ्रममाणो दिवस्पतिः वीथ्याश्रयाणि चरति नक्षत्राणि तथा शशी । हसवृद्ध तथैवास्य रश्मीनां सूर्यवत्स्मृते ।। ४६ त्रिचक्रोभयपाश्र्वस्थो विज्ञेयः शशिनो रयः । अपां गर्भसमुत्पन्नो रथः साश्वः ससारथिः । शतारैव त्रिभिश्रद्युक्तः शुक्लैर्हयोत्तमैः ५० दशभिस्तु कुशैदिव्यैरसङ्गैस्तैर्मनोजवैः । सकृद्युक्ते रथे तस्मिन्वहन्ते चऽऽयुगक्षयात् ५१ संगृहीतो रथे तस्मिञ्श्वेतचक्षुःश्रवास्तु वै । अश्वास्तमेकवर्णास्ते वहन्ते शङ्कवचंसम् ययुला त्रिमनाश्चैव वृषो राजीवलो हयः । अधो वामस्तुरण्यव हंसो व्योमी मृगस्तथा ॥५३ इत्येते नामभिः सर्वे दश चन्द्रमसो हयाः। एते चन्द्रमसं देवं वहन्ति दिवसक्षयात् ।५४ देवैः परिवृतः सोमः पितृभिश्चैव गच्छति । सोमस्य शुक्लपक्षादौ भास्करे पुरतः स्थिते । आपूर्यते पुरस्यान्तः सततं दिवसक्रमात् देवैः पीतं क्षये सोममाप्याययति नित्यदा। पीतं पञ्चदशाहं तु रश्मिनैकेन भास्करः अपूरयन्सुषुम्नेन भागं भागमहःतमात् । सुषुम्नाप्यायमानस्य शुक्ला वर्धन्ति वै फलाः ५७ ५२ ५५ ५६ वालखिल्य ऋषियों द्वारा आवृत होकर दिन-रात किया करते हैं । अग्रगामी महषि अभिमत वचनों द्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गन्धर्व-अप्सराएँ नृत्य-गीत से उनकी सेवा करती हैं । इस प्रकार आकाशगाम दिन नामक सूयं अश्वो के साथ भ्रमण करते हैं ।४७-४८ चन्द्रमा भी नक्षत्रों की गलियो से चला करते है। इनकी किरणों का भी सूर्य की तरह वृद्धि और नाश हुआ करता है । चन्द्रमा के रथ में तीन चक्के हैं और दोनों तरफ घोड जुने हुये हैं । इसका यह यह रथ अश्व और सारथि के साथ जल के भीतर से उत्पन्न हुआ है । इस २य में एक सौ अराये, तीन, तीन वक्के और उज्ज्वल वर्ण के उत्तम घोड़े जुते हुये हैं ।४६-५० ये दिव्य अश्व गिनती मे दस हैं। ये मन की तरह वेगवान्, कृश, असङ्ग जोते गये और कल्पादि में एक बार हैं, जो युगान्त पर्यन्त रथ का वहन करते हैं । रथ में जुते हुए उज्ज्वल वर्ण के वे अइख के समान कान्तिवाले चन्द्र के रथ को आकाश मे खीचते रहते हैं 1५१-५२चन्द्रमा के दसों घोड़ों के नाम हैं—ययु, त्रिमना, वृष, राजीवल, वाम, तुरण्य, हंस, व्योमी और मृग । ये घोड़े चन्द्रदेव को कल्पांत पर्यन्त वहन करते है । देवो और पितरो द्वारा सेव्यमान होकर चन्द्रमा इसी प्रकार गमन करते है ।५३-५५। शुक्ल पक्ष में सूर्य चन्द्रमा के आगे रहते हैं और देवो द्वारा पिये गये चन्द्र को दिवस क्रम से नित्य प्रति परिपुष्ट कर तृप्त करते है। इस प्रकार पन्द्रह दिन पिये गये चन्द्र को सूर्य एक सुषुम्न किरण द्वारा दिवसक्रम से प्रतिदिन एक-एक भाग करके प्रण