पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४१९

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४०० वायुपुराणम् ७० ततः पञ्चदशे भागे किचिच्छिष्टे कलारत्मके । अपराहे पितृगणैर्जघन्यः पर्युपास्यते । ६६ पिबन्ति द्विकलं कालं शिष्ट तस्य तु या कला । निःकृतं तदमावास्यां गभस्तिभ्यः स्वधामृतम् ।। तां स्वधां मासतृष्यै तु पीत्वा गच्छन्ति तेऽमृतम् ६७ सौम्या वहषदश्चैव अग्निष्वात्तास्तथैव च । कस्याश्चैव तु ये प्रोक्ताः पितरः सर्व एव ते ॥६८ संवत्सरास्तु वै कव्याः पञ्चाब्दा ये द्विजैः स्मृताः । सौम्यास्तु ऋतवो ज्ञेया मासा बहषदः स्मृताः। अग्निष्वात्ता(क)र्तयश्चैव पितृसर्गा हि वै द्विजाः ६ पितृभिः पीयमानस्य पञ्चदश्यां कला तु वै। यावन्न क्षीयते तस्य भागः पवदशस्तु सः अमावास्यां तदा तस्य अन्तमापूर्यते परम् । वृद्धिक्षयौ वै पक्षादौ षोडश्यां शशिनः स्मृतौ ॥७१ एवं सूर्यनिमित्तैषां क्षयवृद्धिनिशाकरे । ताराग्रहाणां वक्ष्यामि स्वर्भानोश्व रथं पुनः तयतेजोमयः शुनः सोमपुत्रस्य वै रथः । युक्तो हयैः पिशङ्गैस्तु अष्टाभिर्वातरंहसैः ७३ सवरूथः सानुकर्षः सूतो दिव्यो रथे सहान् । सोपासङ्गपताकस्तु सध्वजो मेघसंनिभः भार्गवस्य रथः श्रीमांस्तेजसा सूर्यसंनिभः । पृथिवीसंभवैर्युक्तैननावगैह्र्योत्तमैः श्वेतः णिशः सारङ्गो नीलः पीतो विलोहितः । कृष्णश्च हरितश्चैव पृषतः पूमिनरेव च ॥ दशभिस्तैर्महाभागैरकृशैर्वातवेगितैः ७६ ७२ ७४ ७५






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लोग मध्याह्न काल मे पीते है । उस अवशिष्ट कला से जो स्वधा रूपी अमृत क्षरित होता है, उसको द्विबलारमक कालमात्र मे पान कर पितर लोग एक महीने तक तृप्त रहते है ।६६। सम्य, वहप, अग्निष्वात्त और कव्य पितर ही है । विद्वानो ने जिसे पंचाब्द संवत्सर कहा है, वही कव्य है । ऋतु सौम्य, मास वहषद और ऋतु अग्निष्वात्त है । ब्राह्मण ! पितृसर्ग यानी पितरो की व्यापारवात इसी प्रकार की है । अमावास्या में पितरे द्वारा पीत चन्द्र की पन्द्रहवी कला के परिपूर्ण भाग का जब तक क्षय होता है, तब तक उनका अन्तिम भाग पूर्ण हो जाता है। अर्थात् सोलहवी कला का नाश नही है । पक्षादि मे चन्द्रमा का वृद्धि क्षय इसी प्रकार होता रहता है । चन्द्रमा की जो यह क्षय-वृद्धि होती है, उसका मुख्य कारण सूर्य ही है ६७-७०१अब हम तारकादि ग्रह और राहु के रथ के सम्बन्ध मे कहते है । बुध का रथ शुभ्रवर्ण और जलीय तेज से युक्त अर्थात् उसमे जल का तेज वर्तमान है। वायु की तरह वेगवान् (पशग वण के आठ घोड़े उसमे जुते हुये हैं । वह रथ मेघ की तरह है, जिस पर ध्वजा-पताका फहरा रही है, तरकस रखे हुये है । उस दिव्य रथ के नीचे काठ लग हुआ है और ऊपर से फौलादी चादर की हुई है । उस रथ का सारथी भी दिक्ष्य है । शुक्र का रथ तेज में सूर्य की तरह और शोभा सम्पन्न है। इसमै पृथ्वी से उत्पन्न नाना वर्ण के मोटे-मोटे वायु की तरह वेगशाली दस घोड़े जुते हुये है। ये घोड़ो में श्रेष्ठ महाभाग अश्व श्वेत, पिशङ्ग सारंग, नील, लोहित, पीत, कृष्ण, हरित, पृषत