पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३११

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२६२ ५४ ५५ ५६ ।।५७ ५८ ५ शतशृङ्ग पुरशतं यक्षाणाममिसेजसम् ' ताम्राभे काद्रवेयस्य तक्षकस्य पुरोत्तमम् विशाखे पर्वतश्रेष्ठे नैकवप्रदरीशुभे । गुहानिरतवासस्य गुहस्याऽऽयतनं महत् श्वेनोदरे महाशैले महाभवनमण्डिते । पुरं गरुडपुत्रस्य सुनाभस्य महात्मनः पिशाचके गिरिवरे हर्यं प्रासादमण्डितम्। यक्षगन्धर्वचरितं कुबेरभवनं महत् हरिकूटे हरिर्देवः सर्वभूतनमस्कृतः । प्रभावात्तस्य शैलोऽसौ महानाभः प्रकाशते। कुसुवे किंनरावास अञ्जने क्ष सहोरगाः । कृष्णे गन्धनैनगरा अहभवनशालिनः पाण्डुरे चरुशिखरे सहप्राकारतोरणे । विद्याधरपुरं तत्र महाभवनशालिनम् (?) सहस्रशिखरे शैले दैत्यानामुग्रकर्तृणाम् । पुराणि समुदीर्णानां सहस्र हेममालिनाम् मुकुटे पन्नगावासा अनेकाः पर्वतोत्तमाः । पुष्पके वै मुनिगणा नित्यमेव मुदा युताः वैवस्वतस्य सोमस्य वायोर्नागाधिपस्य च । सुपक्षे पर्वतवरे दबर्यायतनानि च गन्धर्वैः किन्नरैर्यक्षेर्नागैबिद्याधरोत्तमैः । सिद्धेहितेषु स्थानेषु नित्यनिष्टः प्रपूज्यते इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते भुवनविन्यासो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥३६॥ ६० ।।६१ ।।६२ ६३ ६४ शतश्रृंग पर्वत पर अत्यन्त बली यक्ष के सौ पुर है और ताम्राभ पर्वतपर कडुनन्दन तक्षक की उत्तम पुरी है I५३-५४॥ अनेक परिखा और कन्दराओं से युक्त विशाख पर्वत पर गुहा में रहने वाले गुहृ (कातिकेयजी) का एक विशाल निवास स्थान है। श्वेतोदर महाशैलपर गरुडपुत्र महात्मा सुनाभ का पुर है, जिसमें अनेक भवन बने हुये हैं । पिशाच नामक गिरिर्वर पर कुवेर का विशाल भवन है, जिसमे कोठे और छत भी हैं एवं यक्षगन्धर्व जह विचरण किया करते हैं ।५५-५७। हरिकूट शैलपर सर्वभूत-नमस्कृत हरिदेव विराजमान हैं । उनके प्रभाव से वह पवत देदीप्यमान हो रहा है । कुमुद पर्वत पर किन्नरों का आवास है, अंजन पर्वत पर उरगगण रहते हैं और कृष्ण पर्वत पर विशाल भवन बनाकर गन्धर्वगण निवास करते हैं । मनोहर शिखरवाले पाण्डुर पर्वत पर विशाल भवनों से युक्त विद्याधरो का पुर है, जिसमें चारों ओर ऊंची परिखाएँ और तोरण लगे है ।५८-६० सहस्रशिखर नामक पर्वतपर भयंकर कर्म करने वाले दैत्यो की सुवर्ण मण्डित सहस्रपुरी है । मुकुट पर्वतपर पतंगों के अनेक शैलवास है । पुष्पक पर्वत पर मुनिगण नित्य आनन्द से युक्त होकर रहते हैं । सुपक्ष नामक पर्वत पर वैवस्वत, सोम, वायु और नगचिप के चार निवासस्थान हैं। इन पूर्वोक्त स्थानों या पुरभवनो के गन्धर्व, किन्नर, यक्षनाग, विद्याधर और सिद्ध आदि अपने-अपने इष्ट देवों की पूजा किया करते हैं (६१-६४॥ श्री वायुमहापुराण का भुवनविन्यास नामक उनतालीसवाँ अध्याय समाप्त ।।३६।