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अथैकोनचत्वारिशोऽध्यायः

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अथैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

वनविन्यासः

स्खत उवाच

अतः परं प्रवक्ष्यामि यस्मिन्यस्मिञ्शिलोच्चये। ये संनिविष्टा देवानां विविधानां गृहोत्तमाः ॥१॥

तत्र योऽसौ महाशैलः शतान्तो नैकविस्तरः । नैकधातुशतैश्चित्रैनैकरत्नाकराकरः ॥२॥

नितम्बैः पुष्पलालस्बैनें कप्तस्चगुणालयः । महार्हमणिचित्राभिर्लक्षवंशैरलंकृतः ॥३॥

नितम्बैः षट्पदोद्गीतैः प्रवालैर्हचित्रकैः । तदैः कुसुमसंकीर्मत्तभ्रमरनादितैः ॥४॥

लताम्बैश्चित्रवद्भिश्चित्रैर्धातुशताचितैः । सानुभी रत्नचित्रैश्च पुष्पाद्य श्च विभूषितः॥५॥

विमलस्वादुपानीयैर्नकशस्त्रवणैर्युतः। निकुञ्जैः कुसमोत्कीणैरनेकैश्च विभूषितः ॥६॥

पुष्पोडुपबतभिश्च स्त्रवन्तीभिरलंकृतः । किनराचरिताभिल दरीभिः सर्वतस्ततः ॥७॥

अध्याय ३६ भुवनविन्यास सूतजी बोले-इसके आगे अब हम पर्वतों के जिनजिन शिखरों पर विविध देवो के उत्तमोत्तम गृह ने हुये है, उनकी कथा कहते है ।१ पर्वतों के बीच भीतान्त नाम का एक विस्तृत महागिरि है, जो बहुविध गैरिकादि धातुओं से चित्रित और अनेक प्रकार के रत्नों को उत्पन्न करनेवाला है । उसके मध्य भाग में पुष्पों के ढेर लगे हुये हैं और वह सब प्रकार के सत्वगुणों का आलय है। वहुमूल्य मणियों से जटित ओर सोने के बाँसों से वह सुशोभित है ।२-३। उस पहाड़ के मध्य में भरे सर्वदा गुंजते रहते हैं. किनारेकिनारे फूलो के ढेर लगे हुये हैं. जहाँ भौरों की गुंजार होती ही रहती है, वहां की भूमि की पच्चीकारी सोने और मूने से भी गई है। पहाड़ की चोटियों पर लताओं ने ही मानो वेलबूटे बना दिये हैं और इखस्डबर बिखरी हुई लाल-प घातुएँ चित्र की भांति दीख पड़ती हैं। वह फूलों की कोई गिनती नहीं है ।४८५ मीठे ओर स्वचछ पानी के कितने ही झरने झर रहे हैं । फूलों से लदी हुई झांडिया या कुनैं बह की शोभा को और वडा देती है। वह कुछ छोटी-बड़ी नदियाँ ऐसी भी हैं, जिनमें फूलों से सजी हुई नावें तैरती रहती हैं।