पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३०५

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२८६ ।७० द्राक्षावनानि रम्याणि तथा नागवनानि च । खर्जरवनखण्डानि नीलाशोकयननि च ६८

दाडिमनां च स्वाद्नामक्षोटकवनानि च । अतसीतिलकानां च कदलीनां वनानि च ६६

बदरीणां च स्वादूनां वनखण्डानि सर्वशः । स्वादुश्तम्बुपूर्णाभिर्नदीभिः शोभितानि च

तथा पुष्पफशैलस्य महामेघस्य चान्तरे । षष्टियोजनविस्तीर्णा स भूमिः शतमयस । ७१

समा पाणितलप्रख्य कठिन पण्डुिरा धना । वृक्षगुल्मलतागुल्मैस्तृणैश्चापि विद्वजत ७२

वजता विविधैः सत्त्वैनित्यमस्मिन्निराश्रया। सr काननस्थली नाम दारुण रोमहर्षण ७३

महसरांसि च तथा महावृक्षास्तथैव च । महदनानि सर्वाणि कान्तानीमानि सर्वशः

सरसां च वनानां च स्थलीनां च प्रजापतेः। क्षुद्राणां सरसां चैव संख्या तथा न विद्यते

दश द्वादश सप्ताष्टौ विंशत्रशच्च योजनाः । स्थल्यो द्रोण्यश्च विख्यातः सरांसि च वनानि च ॥७६

केचित्सन्ति यहघोराः श्यामः पर्वतकुक्षयः। सूर्यांशुजालैरस्पृष्टा नित्यं जीत दुरासदः । ७७

तथा ह्यनलतप्तानि सरांसि द्विजसत्तमाः। शैलकुक्ष्यन्तरस्थानि सहस्राणि शतानि च इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते भुवनविन्यासो नामाष्टात्रिशोऽध्यायः ।।३८।।

७४ ७५ ७८ है । और जहाँ रमणीय द्राक्षावन, नागवन, खजूरवन, नीलअशोक-वन, स्वादिष्ठ दाड़िमो के वन, अखरोट के वन, अतसी-तिलक-वन, कदलीवन और सुन्दर स्वादवाले वदरीवन है । मधुवन और शीतल जलवाली नदियो से भी वह स्थली शोभित है ।६६७०पुष्पक और महामेच पर्वतो के बोझ स योजन चौड़ी और साठ योजन लम्बी एक भूमि है, जो हथेली की तरह समतल कठोर, पाण्डुर और घन है। वहाँ वृक्ष, लता, गुल्म तृण आदि का सर्वथा अभाव है और एक भी जीव जन्तु वहाँ नही है वह भूमि अत्यन्त भयङ्कर और कठोर है । इसका नाम काननस्थली है |७१-७३। वहाँ कितने महासरोवर, महावृक्ष और अति कमनीय महावन है । प्रजापति द्वारा बनाये गये वहाँ क्षुद्र सरोवरों, वनो ओर स्थलों को गणना नही हो सकती है I७४-७५। इन छोटे-मोटे सरोवरो आदि की तो बात ही णेड़िये वहाँ के प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थल, द्रोणी और सरोवरो की भी गिनती नही है, जो सात आठ, दस, और बारह योजन की लम्बाई । प्रदेश -पर चौड़ाई मे है उस में स्थानस्थान फ़ितनी ही कृष्ण वर्ण की कंदराएँ और घाटियाँ है, जहाँ कभी भी सूर्य की किरणे नही पहुंचती हैं, जिससे वे सदा ठढी रहती है और जहाँ कोई जा नही सकता है । ब्रह्मणो ! वहाँ कितने ही सरोवर है, जो सहन की संख्या में पर्वतों के कुक्षि में वर्तमान है । इन सरोवरों का जल सदा खोलता रहता है । ७६- ७८॥ श्री वायुमहापुराण का भुवनविन्यास नामक अड़तीसर्या अध्याय समाप्त ।।३८।।