पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२९९

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२८७ वायुपुराणम् अथाष्टत्रिंशोऽध्यायः युवनविन्याक्षः सुत उवाच अतः परं प्रवक्ष्यामि दक्षिणां दिशमाश्रिताः । या द्रोण्यः सिद्धचरिताः शृणु ता ह्यनुपूर्वशः ॥१ शिशिरस्याचलेन्द्रस्य पतङ्गस्यान्तरेण च । श्लक्ष्णभूमिश्रिया युक्तं लतालिङ्गितपादपम् ॥२ पृथुक्षेपोच्चशिखरैः पादपैरुपशोभितम् । उदुम्बरवनं रम्यं पक्षिसंघनिषेवितम् ३ पक्वैबिवुमसंकाशैर्मधुसूत्रैर्मनोरमैः। ज्वलितं तद्वनं भाति महाकुम्भोपमैः फलैः ४ तत्सिद्धयक्षगन्धर्वाः किंनरा उरगास्तथा । विद्याधराश्च सुदित उपजीवन्ति नित्यशः। ५ प्रसन्नस्वादुसलिलास्तत्र नद्यो बहूदकाः । सुरसामलतोयास्ताः सरांसि च समन्ततः ६ समन्ताद्योजनशतं तद्वनं परिमण्डलम् ताम्रवर्णस्य शैलस्य पतङ्गस्यान्तरेण तु । शतयोजनविस्तीर्णा द्वियोजनशतायतम् I७ ८ अध्याय ३८ भुवन विन्यास सूतजी बोले—अब आगे हम दक्षिण दिशा की उन द्रोणियों का जहाँ सिद्ध गण सदा आसन जमाये रहते हैं–क्रमशः वणन कर रहे हैं, सुनिये ।१ शिशिर और पतङ्ग पर्वतों के मध्य में एक रमणीय उदुम्बरवन है। वहाँ की भूमि चिकनी है, लताएँ पादपों पर चढ़ हुई हैं, ऊंचे शिखर वाले स्थूल वृक्षों पर पक्षिवृन् बसेरा लिये हुये हैं, भृगे की तरह लाललाल पके हुये रसीले बड़ेबड़े मनोहर फलों से वह वन हो रहा जगमग है ।२-४। यक्ष गन्धर्व, किन्नरउरग और विद्याधर आदि नित्य ही वहाँ उन फलों को बड़ी प्रसन्नता से खाया करते हैं ।५। निर्मल और मीठे जल वाली कितनी ही अगाध नदियाँ वहाँ बहती रहती हैं । इधर-उधर कितने ही निर्मल तथा मीठे जलवाले सरोवर भी दीख पड़ते है। वहाँ भगवान् कर्दम प्रजापति का रमणीय आश्रम है, जहाँ देवगण विराजमान रहते है । वह वन बड़ा ही मनोहर है। उसका मण्डल-विस्तार सौ योजन का है ।६-७। ताम्रवणं और पतङ्ग पर्वत के बीच सौ योजन लम्बा और दो योजन चौड़ा एक महापुण्य सरोत्रर