पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२९८

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सप्तत्रिंशोऽध्यायः २७६ २४ ॥२५ २६ महमूलैर्महासारैः स्थिरैरविरलैः शुभैः। कुमुदाञ्जनसंस्थानैः परिवृत्तैर्महाफलैः ।। मृष्टगन्धरसोपेतैरुपेतं सिद्धसेवितम् माहेद्रस्य द्विपेन्द्रस्य तत्र वास उदाहृतः । ऐरावतस्य भद्रस्य सर्वलोकेषु विश्रुतः वेणुमन्तस्य शैलस्य सुमेधस्योत्तरेण च । सहस्रयोजनायासं विस्तीर्णं शतयोजनम् वृक्षगुल्मलतागुच्छेः सर्ववीरुद्भिरीरितम् । दूर्वाप्रस्तारमेवाथ सर्वसत्त्वविजतम् तथा निषवशैलस्य देवशैलस्य चोत्तरे । सहस्रयोजनयामा शतयोजनविस्तृता सर्वा ह्यकशिला भूमिवृक्षवीरुद्विज्जता। आप्लुत पादमात्रेण शूदकेन समंततः इत्येता ह्यन्तरद्रोण्यो नानाकाराः प्रकीर्तिताः । मेरोः पूर्वेण विप्रेन्द्र यथावदनुपूर्वशः। २७ ।।२६ ॥२& ३० इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते भुवनविन्यासो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।।३७। वहाँ के वृक्ष भी कुमुद और अंजन पर्वत को ही तरह दृढ़ जान पड़ते हैं । उन दृढ़ पेड़ों का मूल भाग खूब मोटा ओर स्थिर है । सभी वृक्ष एक में सटे हुये हैं जिनमें सुगन्धित ओर रसीले फल लगे हुये हैं । सिद्धगण इन फलों खाया करते हैं ।२४। इन्द्र के गजराज ऐरावत का वासस्थान यही वन कहा गया है । यह बात को तीनों लोकों में प्रसिद्ध है ।२५। वेणुमन्त और सुमेध पर्वतों के बीच सत्तर हजार योजन लम्बा और सौ योजन चोडा एक मैदान है, जहाँ वृक्ष, गुरुम, लता निकुंज आदि कुछ भी नहीं हैं, जीवजन्तुओं का निवास भी वहाँ नहीं है वह । केवल हरी-हरी दूबे उगी हुई है । निषधशैल और देवशेल के उत्तर में हजार योजन लम्बी ओर योजन है। यहाँ भी वृक्षलता आदि नहीं है । हाँ थोड़ा सा पानी सभी सौ चौड़ी एक शिलाखण्डमय भूमि जगह फैला हुआ है। ब्राह्मणो ! मैंने उन नाना आकर प्रकार की स्तर द्रोणियों को क्रमशः बत दिया जो मेरु के पूर्व में स्थित है ।२६-३०॥ श्री वायुमहापुराण का भुवनविन्यास नामक सैतीसवाँ अध्याय समाप्त ।।३७।